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________________ ७८ आत्मानुशासन निमित्त धनादिक सामग्री मिलावनेकी आत्तिरूप वाँछा करै ताकरि सदा दुखी ही रहै है। बहुरि देखो तपका माहात्म्य, जो बिना चाहे ही बडापना वा ऋद्धयादिक हो है, तातै तपतें और कोऊ उत्कृष्ट नाही। - आगें जो या प्रकार तपवि. प्रवर्त्तता जीव है सो कहा कार्य करै है ऐसैं दिखावता सूत्र कहै हैं पृथ्वीछन्द इहैव सहजान् रिपून् विजयते प्रकोपादिकान् गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाञ्छति । पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात्स्वयं यायिनी नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ॥११४।। अर्थ-तपकौं होत संतँ इहां ही तत्काल जे अनादित आत्माकी साथि लगै ऐसे क्रोधादिक हेरी तिनिकौं जीतिए है। जिनको यहु आत्मा अपना प्राण देयकरि भी चाहै, ऐसे गुण परिणमै है-प्रगट है। बहुरि आगामी कालविर्षे शीघ्र ही पुरुषार्थ मोक्ष ताकी सिद्धि स्वयमेव प्राप्त हो है, तातें ऐसा आतापका संहार करनहारा जो तप ताविष कौन विवेकी मनुष्य नाही रमै, अपि तु रमै ही रमै । भावार्थ-ए जीव तौ जिस कार्यतै आगामी अवगुण होइ, तत्काल गुण होइ अथवा तत्काल अवगुण होइ आगामी गुण होइ तिस कार्यविषै भी अनुरागी होइ लागते देखिये है। वहरि यह तप है सो तत्काल भी गुण करै अर आगामी भी गुण करै तो ऐसे तपविषै कौन विवेकी आदर न करै ? अपि तु करै ही करै। तहां इस तपका तत्काल गुण तो इतना हैजे प्रत्यक्ष दुःखदायक अनादित लगै क्रोधादिक तिनका तो अभाव हो है, अर अपना प्राण खोए भी प्राप्ति होइ तौ भी जिनकौं चाहै ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानादिक गुण वा ऋद्धि सन्मानादिक अतिशय ते स्वयमेव प्रगट हो हैं। बहुरि आगामी गुण ऐसा है जो तपके फलतें शीघ्र ही पुरुष आत्मा ताका अर्थ जो प्रयोजन मोक्षरूप ताकी शीघ्र ही सिद्धि हो है। जैसे इस लोकपरलोकवि गुणकर्ता तपकौं जानि या विर्षे रति करनी योग्य है। आगें तपवि रति कर्ता जो जीव आयु अर शरीरकी सैं सफलता करै हैं ताकौं सराहता संता सूत्र कहै हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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