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________________ तप आराधना ७५ भोजन धरया अर वह बिना खाए वाकौं छांडै तौ वाका नाम झूठ है । तैसें इनूंने सर्व विषय बिना भोग किएं छोडे तांतै सब विषय इनूंनै झुंठि समान कीए, तिनकूं हम नमस्कार करे हैं । आगे ऐसें त्याग करता जीवकै परम उदासीनता है लक्षण जाका ऐसा चारित्रको प्रतिपादन करता संता सूत्र कहे हैं— अकिंचनोऽहमित्यस्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ ११० ॥ अर्थ — मैं अकिंचन हौं, किछू भी मेरा नाहीं, ऐसे भावनाकरि तूं तिष्ठि । ऐसें भावना कीएँ शीघ्र ही तूं तीन लोकका स्वामी हो है । यहु योगीश्वरनिकै गम्य ऐसा परमात्माका रहस्य तोकौं कह्या है । भावार्थ–अज्ञानतातै परविर्षं ममत्व है अर अपना होइ नाहीं याही तें हीनदशकौं प्राप्त होइ रह्या है । बहुरि जब यहु भावना होइ जो कोई परद्रव्य मेरा नांहीं तब यहु परम उदासीनता चारित्ररूप होइ ताकै फलतैं तीन लोक जाकौं अपना स्वामी मानै ऐसा पदकौं पावै । यहु रहस्य योगीश्वर जाने हैं सो हम तोकौं का है । तूं भी ऐसी ही भावना करि ऐसे हम शिक्षा दई है । आगै अब तप आराधनाका स्वरूपका अनुक्रमकै अर्थ दुर्लभ इत्यादि सूत्र कहै हैं आर्या छन्द दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमय मल्पपरमायुः । मानुष्यमिहैव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥ १११ ॥ अर्थ - मनुष्य पर्याय है सो दुर्लभ है, अपवित्र है, सुखरहित है, मरण समय जाका न जानिये ऐसा है, उत्कृष्ट आयु भी जाका अल्प है ऐसा है । बहुरि तप है सो इस मनुष्य पर्यायविषै हो हो है । बहुरि मुक्ति है सो तप ही करि हो है । तातें मनुष्यपणों पाइ तोकौं तप करना योग्य है । भावार्थ - आत्माका हित मोक्ष है । ताकी प्राप्ति तप बिना नाहीं । जातैं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रपूर्वक तप आराधनाकौं आराधे तौ साक्षात् मोक्षमार्गी होइ । बहुरि तप है सो मनुष्य पर्याय विषै ही हो है सो अन्यत्र भी का है । उक्तम् च देव विसयपसत्ता रइया तिव्वदुःखसंतत्ता | तिरिया विवेयवियला मणुयाणं धम्मसंपत्ती ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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