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________________ ७६ आत्मानुशासन ____ अर्थ-देव तो विषयाशक्त अर नारकी तीव्र दुःख करि तप्तायमान अर तिर्यंच विवेकरहित, तातै मनुष्यनि ही कै धर्मकी प्राप्ति है। बहरि मणुष्य पर्याय बारम्बार होइ तौ पाया पर्यायविषै तप न कीया तौ आगै करै, सो अनन्तानन्त काल भए भी मनुष्य पर्याय पावना दुर्लभ है। बहुरि देववत् इहां सुख होइ तौ सुखकौं छोडि तप करना कठिन होइ, सो इहां शारीरिक मानसिक दुःख ही की मुख्यता है । दुःखकौं छोडि तप करनेविषै खेद कहा ? बहुरि जो मनुष्यका सुन्दर शरीर होइ तौ ताके विगारनेका भय होइ, सो घातु-उपधातुनिकरि निपज्या महा अपवित्र याकौं तपविषै लगावनेका भय कहा ? बहुरि देववत् मरणका निश्चय होइ तौ कितनेक काल तौ निश्चित रहिए पीछे तप करिए, सो मनुष्यके मरनेका निश्चय नाहीं कब मरै। बहुरि जे उत्कृष्ट भी आयु बहुत होइ तो मेरा उत्कृष्ट ही आयु होगा, ऐसा भ्रमकरि ढील करिए सो उत्कृष्ट आयु भी थोरा । तातै मुझको प्रमादी न होना सावधान होइ तप ही करना योग्य है । आगै तहां बारह प्रकार तपविर्षे मक्तिका निकट साधन ध्यानरूप तप है, ताका ध्येय फल आदि दिखावता संता सूत्र कहै हैं शार्दूल छन्द आराध्यो भगवान् जगत्त्रयगुरुवृत्तिः सतां संमता क्लेशस्तच्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् । साध्यं सिद्धिसुखं कियान् परिमितः कालो मनः साधनं सम्यक चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किं वा समाधौ बुधाः । ११२ अर्थ-समाधिविर्षे तीन जगतका गुरु भगवान सो तौ आराधना अर संतनिकरि सराही ऐसी प्रवृत्ति करनी अर तिस भगवानका चरणका स्मरण करना, इतना क्लेश, बहुरि कर्मनिका प्रकर्षपने नाश होना यहु खरच, अर मोक्ष सुख साधनेका फल, अर काल कितना इक परिमाण लीए थोरा, अर मनका साधन करना । हे ज्ञानी हो! तुम नीकै मनवि विचार करौ समाधिविर्षे कहा कष्ट है ? भावार्थ-कोऊ जानेगा तपविर्षे कष्ट है, कष्ट सह्मा जाता नाहीं । ताकौं कहिए है-सर्व तपनिविर्षे उत्कृष्ट तप ध्यान है, तिस ही विर्षे कहा कष्ट है सो तू कहि । प्रथम तौ नीचेका सेवन करतें लज्जादिकका खेद हो है । सो तौ ध्यानविर्षे तीन लोकका नाथ अरिहन्तादिक वा तीन लोकका ज्ञायक आत्मा ताका आराधन करना । बहरि जो आपको नीच कार्य करना परै तो खेद होइ । जिस वृत्तिको महन्त पुरुष भी प्रशंसै ऐसी वृत्ति अंगीकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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