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लक्ष्मीके त्यागमें समर्थ ज्ञानी
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तैसें मिले हुए भी विषयनिविषै इनिके सेवनतें मेरा बुरा होइगा ऐसी उदासीनता आए उपायकरि भी तिनका त्याग करिये है, इहां किछू आश्चर्य नाही ।
आगैं लक्ष्मीकौं छोरता संता केई कहा करै है सो कहै हैश्रियं त्यजन् जडः शोकं विस्मयं सात्विकः स ताम् । करोति तत्त्वविच्चित्रं न शोकं न च विस्मयम् ॥ १०४||
अर्थ - मूर्ख पराक्रमरहित पुरुष है मो तौ लक्ष्मीकौं त्याग करता संता शोक करे है । बहुरि सत्य पराक्रमका धारी पुरुष है सो गर्व करे है । बहुरि तत्त्वज्ञानी पुरुष तिस लक्ष्मीकों त्यागता संता न शोक करै है अर न गर्व करे है, सो यह बड़ा आश्चर्य है ।
भावार्थ–संसारी जीवनिकै धनादिकका त्याग होतें दो प्रकार भाव होइ । जो पराक्रम रहित है, अर वांकै कोई कारण पाइ धनादिकका त्याग हो है, तहां वांकै तौ शोक हो है । यह कार्य क्यौं भया, एसैं अंतरंगविषै खेद उपजै है । बहुरि जो पराक्रमका धारक है अर वांकै कोई कारणतें वा अपने उत्साहतैं धनादिकका त्याग हो है तहां वाकै गर्व हो है । मैंने ऐसा कार्य किया, ऐसे अंतरंगविर्षं अहमेव हो है । बहुरि देखो आश्चर्य ! जो तत्त्वज्ञानी पुरुष है ताकै धनादिकका त्याग होतैं शोक अर गर्व दोऊ ही नहीं हो है । जातैं ज्ञानीं धनादिककौं परद्रव्य जानें है । बहुरि पर द्रव्यका त्याग होतें खेद अर गर्व दोऊ ही नाहीं कीजिए है । तातैं ज्ञानी शोक गर्व रहित हुवा पर द्रव्यकौं त्यागे है ।
आगे विवेकी पुरुषनिकरि जैंसें लक्ष्मी तजिए है तैसें शरीर भी तजिए है, ऐसें दिखावता संता सूत्र कहै हैं
शिखरणी छन्द
विमृश्योच्चैर्गर्भात्प्रभृति मुधाप्येतत्
मृतिपर्यन्तमखिलं क्लेशा शुचिभयनिकाराद्यबहुलम् | बुधैस्त्याज्यं त्यागाद्यदि भवति मुक्तिश्च जडधीः
स कस्त्यक्तु ं नालं खलजनसमायोगसदृशम् || १०५॥
अर्थ - यहु शरीरादिक है सो समस्त ही गर्भतैं लगाय मरण पर्यंत वृथा क्लेश अपवित्रता भय पराभव पाप जाविषै बहुत पाइए ऐसा है सो
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