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आत्मानुशासन
___ अर्थ-कोई त्यागी तौ विषयनिकौं तिणां समान अकार्यकारी चितवन करि जे पुत्रादिक वा याचक लक्ष्मीके अर्थी तिनकौं लक्ष्मी देत भया । बहुरि अन्य कोई त्यागी तिस लक्ष्मीकौं पापरूप, तृप्तिकी करणहारी नांहीं ऐसी मानता संता काहूकौं न देत भया ऐसैं आप छोड़ता भया । बहुरि अन्य कोई त्यागी सौभाग्य दशाकौं प्राप्त भयां सो तिस लक्ष्मीकौं पहले ही अकल्याणकारी विचार न ग्रहण करता भया ऐसें एते तीनौं सर्वोत्कृष्ट त्यागी उत्तरोत्तर उत्कृष्ट तुम जानहु । __ भावार्थ-सर्व धनादि सामग्रीनिको त्याग करैं ते सर्वोत्कृष्ट त्यागी कहिए । तिनिविषै जे पुत्रादिककौं धनादिक देइ त्याग करै हैं ते भी उत्कृष्ट त्यागी हैं। बहुरि जे आप काहकों देवै नांही ऐसें ही धनादिको त्यागें ते जीव उन” भी उत्कृष्ट त्यागी हैं। जातें उनकै तौ किछू कषाय अंश” काहकौं देनैंका परिणाम भया, इनिकै ऐसी विरागता भई जो कोऊ ग्रहो इनिका किछू प्रयोजन नाहीं। बहुरि जे पहले ही धनादिककौं ग्रहै नाही, कुमारादि अवस्थाविर्षे ही त्याग करैं ते उनतें भी उत्कृष्ट त्यागी हैं, जात उन तो भोगि करि त्याग कोया, इनकै ऐसी विरागता भई जो पहले ही भोगनेके परिणाम ही नांहीं भए। ऐसै ए सर्व दत्तिके दातार अनुक्रमतें उत्कृष्ट उत्कृष्ट जाननें।
आगें उत्कृष्ट संपदानिकौं पाइकरि छोरे हैं जे सत्पुरुष तिनिका किछू भी आश्चर्य नांहीं ऐसा दिखावता संता सूत्र कहै हैं
अनुष्टप छन्द विरज्य सम्पदः सन्तस्त्यजन्ति कि मिहाद्भुतम् । मा वमीत् किं जगुप्सावान् सुभक्तमपि भोजनमू ।।१०३।। ___ अर्थ-सत्पुरुष हैं ते विरक्त होइ करि संपदानिकौं छोरै हैं। सो इहां कहा आश्चर्य है ? ग्लानि सहित पुरुष है सो भलै प्रकार भक्षण कीया हुवा भी भोजनकौं कहा मैं नाहीं ? अपितु वमैं ही वमैं । ___भावार्थ-रागभाव होते ती त्याग कीए दुःख ही है। दुःख सहना कठिन है। तातै सरागी पुरुष त्याग करें तौ तहां आश्चर्य मानिए । बहुरि विरागता भए त्याग करने मैं किछू खेद नाहीं, सुख हो है । अर सुखकौं कौंन न चाहै, तातै विरागी पुरुष त्याग करें तहां किछू भी आश्चर्य नांहीं । जैसे काहून भोजन किया था अर वाकै ऐसी ग्लानि भई इस भोजन तैं मेरे प्राण जांहिगै, तब वह पुरुष उस भोजनका उपायकरि भी वमन करै ।
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