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________________ कामाग्निके शमनका उपाय तप सो ऐसी भी अवस्था इस संसारविर्षे आंधेकी वटेर समान है। तात याकै भरोसै निश्चित रहना योग्य नाहीं । __ आगै सुख उपजावनहारे वस्तु तिनिके अभिलाषी जीवनिका काम है, सो यह अवस्था करै है, ऐसा कहै हैं: वसन्ततिलका छन्द हा कष्टमिष्टवनिताभिरकाण्ड एव चण्डो विखण्डयति पण्डितमानिनोऽपि । पश्यामृतं तदपि धीरतया सहन्ते दग्धु तपोऽग्निभिरमु न समुत्सहन्ते ।।१०१॥ अर्थ-हाय यह बड़ा कष्ट है जो आपकौं पंडित ज्ञानी मान है तिनको भी यहु प्रचंड काम है सो विना ही अवसर इष्ट स्त्रीनिका निमित्तकरि खंडित करै हैं । ज्ञानीपनांका खंड-खंडकरि महा दुख उपजावै हैं। बहुरि तूं यह आश्चर्य देखि तिस अपना खंड-खंड होनाकौं तौ धीर-वीरपनाकरि सहै है, अर इस कामकौं तपरूपी अग्निकरि जलावनेकौं नांही उत्साह करै है। भावार्थ-काम है सो देवतानिपर्यंत सर्व जीवनिकौं सतावै है। बहुरि जै आपकौं ज्ञानी मानै हैं तिनकौं भी स्त्रीनिका निमित्ततें भ्रष्ट करि दुःख उपजावै है। सो देखो जैसे कोई बुद्धिमान हुवा रहै है अर आपकौं कोई बाणनिकरि छेदै है। तहां साहसकरि बाणनिकी तो मार खाया करै अर वाण चलावनेवालेकौं मित्र जानि वाके नाशका उपाय न करे, वाकी पुष्टता ही किया चाहै तहां बड़ा ही आश्चर्य मानिये । तैसें कोई आपकौं ज्ञानी मानें है अर आपकौं काम है सो स्त्रीरूपी वाणनिकरि पीडै है । सो उनकी तौ पीडा सह्या करै अर कामकौं हित जांनि तपरूपी अग्निकरि वाकौं भस्म करनेका उपाय नांहीं करै, अनेक सामग्रीनिकरि वाकौं पुष्टता ही कीया चाहै है सो यह बड़ा आश्चर्य है। आगें काम जलावनेकौं उत्साहरूप भए ऎसै केई जीव ते कहा करत भये सो कहै हैं _ शार्दूल छंद अर्थिभ्यस्तृणवद्विचिन्त्य विषयान कश्चिच्छियं दत्तवान् पाषां तामवितर्पिणीं विगणयन्नादात् परस्त्यक्तवान् । प्रागेवाकुशलां विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यग्रहीत् एते ते विदितोत्तरोत्तरवराः सर्वोत्तमास्त्यागिनः ॥१०२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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