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आत्मानुशासन
ऐसा यहु शरीरादिक नीकेँ विचारि ज्ञानीनिकरि त्यजने योग्य है । बहुरि जोया त्याग मुक्ति होइ तो ऐसो मूर्खबुद्धी कौन है जो याके त्याग करनेको समर्थ न होइ ? कैसा है शरीरादिक- दुष्टजनका मिलाप समान है ।
भावार्थ - दुःख, अपवित्र पनौं, भय, अपमान पाप ए जहां एक-एक भी थोरे भी कबहू भी होइ तौ ताकूं विवेकी छांड़ें, सो शरीरादिविषै ए सब ही वहुत घनें सदा काल पाइए है । तातें ए विवेकीनिकरि छोड़ने योग्य ही हैं । बहुरि अन्य लाभ न होइ तौ भी इनिकौं छोड़ने । अर इनिकै छोड़नेंतें मोक्ष होइ तो एैसा मूर्ख कौन जो इनिकौं न छांडै । जैसे दुष्टका मिलाप दुख-दायक, तैसें इनिकों सर्व प्रकार दुखदायक जानि छोड़ना ही योग्य है ।
आगैं जैसें लक्ष्मी अर शरीर अनेक अनर्थके कारकपनां करि छोड़े तैसें ही रागादिक भी छोड़नें ऐसा कहे हैं-
वंशस्थ छंद
कुबोधरागादिविचेष्टितैः फलं
त्वयापि भूयो जननादिलक्षणम् ।
प्रतीहि भव्य प्रतिलोमवृतिभिः
ध्रुवं फलं प्राप्स्यसि तद्विलक्षणम् ||१०६ ||
अर्थ - हे भव्य ! तैं ही कुज्ञान रागादिरूप विरुद्ध चेष्टानिकरि बारबार जन्म मरणादि है लक्षण जाका ऐसा फल पाया है । तौ अब तूं ऐसी प्रतीति करि जो इनितैं विपरीत प्रवत्तिनिर्कारि तिस फलतैं विपरीत लक्षण लए जो फल ताक निश्चैकरि तूं पावैगा ।
भावार्थ — लोकविषै भी जिस कारणतैं जो कार्य निपजै तिसतें उलटा कारणतैं उलटा ही फल निपजै । जैसैं गरमीतैं जो रोग होइ तिसतें उलटा शीतल वस्तु तिस रोगका नाश होइ । तातैं हे भव्य ! तैं अज्ञान असंयम करि जन्म मरणादि दुःखरूप फल पाया है । बहुरि जिस कारण एकही बार कार्य निपजै तहां तौ भ्रम भी ऐसा होइ जो अउर ही कारणतैं यहु कार्य भया होगा । सो संसारी जीवनिकै बारंबार अज्ञान असंयमहीका सेवन दीखै है । अर इनकै जन्मादि दुःख होता दीसे है । तातें इहां भ्रम भी नहीं है । जैसैं जिसकौं जब खाय तब ही रोग उपजै तौ जानिए यहु इस रोगका कारण है । बहुरि जो औरनि ही कै होइ । सो तूं ही विचारि मैं कैसे परिणम हौं, कैसा फल पावौं हौं । तातें
भया होइ तौ भी भ्रम
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