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आत्मानुशासन वंश जिने । बहुरि कैसे हैं ? बुद्धि के पारकौँ प्राप्त भये हैं। बहुरि कैसे हैं ? धारे हैं उन्नतता अर धन भंडार जिनूंनै, ऎसे राजा जिस धर्म होते प्रधान हो हैं। बहरि तिस धर्मरूप प्रदेशका मार्ग है सो दान व्रतादि भेदनितें प्रचुर है-अनेक प्रकार है । बहुरि आशा जो बांच्छा ताकरि रहित है। बहुरि भुजंगम जे कामी तिनकरि दुर्गम है, अगोचर है। जातें ऐसे हैं तातें आर्य जे भोले तिनि विर्षे बड़े जु हैं हम तिनकै सो मार्ग प्रगट करनेकौं अयुक्त है। हमारी इतनी शक्ति नाहीं जो प्रकट कहैं । बहुरि समस्त जे आर्य कहिए गणधरादि सत्पुरुष वा सबनिकरि सेवने योग्य ऐसा सर्वार्य कहिए सर्वज्ञदेव तिनकरि प्रगट कीया है। उनका प्रगट कीया हु धर्मका मार्ग सर्बकै प्रतीत करने योग्य हो है।
भावार्थ-इहां कोई प्रसंग पाइ सर्वार्य मंत्रीकी तौ प्रशंसा करी । अर याहीका दूसरा अर्थविर्षे धर्मका फल वा धर्मका मार्ग प्रगट करनहारा तिनका स्वरूप कह्या है।
__ आगें शरीरादिक” वैराप उपजाय जीवकौं धर्म अर धर्भका मार्ग दिखावता जो मुनि ताके किछू भी फलकी इच्छा नाहीं है । परका उपगार ही कै अर्थि उनकी प्रवृत्ति है, जातें “परोपकाराय सतां हि चेष्ठितं" ऐसा नीतिका वचन है, सो ही दिखावता संता सूत्र कहै हैं
शिखरणी छंद शरीरेऽस्मिन् सर्वाशुचिनि बहुदुःखेऽपि निवसन् व्यरंसीन्नो नैव प्रथयति जनः प्रीतिमधिकाम् । इमां दृष्ट्वाप्यस्माद्विरमयितुमेनं च ययते यतिर्याताख्यानैः परहितरतिं पश्य महतः ।।९७।।
अर्थ-सर्व प्रकार अपवित्र अर शारीरिक मानसीक बहुत दुःख जाविर्षे पाइए ऐसा इस शरीरविर्षे तिष्ठता थका जन है सो विरक्त नाही हो है। बहुरि यहु जन इस शरीरको देखि अधिक प्रीतिकौं नाहीं विस्तारै है कहा, अपि तु विस्तारै ही है, यह काकाख्यान है। सो यह जन तौं ऐसा है। बहुरि मुनि है सो इस जनको जान्या हुवा सार उपदेश तिनिकरि इस शरीर” विरक्त करनैंकौं यत्न करै है। सो महंत मुनिकै ऐसी परहित करनेविर्षे अनुराग है ताकुँ तू देखि ।। ___भावार्थ-जैसे पर जीव भला मानै अपनां अभिलाष सधै तैसैं तो सीख देनेवाले बहुत हैं । परन्तु मुनीनिकै ऐसा परहितविर्षे अनुराग है। ए जीव तौ शरीरकौं अपवित्र दुःखका कारण प्रत्यक्ष देखै है तो भी यारौं विरक्त
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