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सर्व आपदाओंका घर-जन्म न हो है । याहीविर्षे अतिप्रीति करै है । अर मुनि है सो जैसें दीपकविर्षे पड़ता पतंगकौं दयावान् बचावै तैसें याकौं उपदेश देइ शरीर” विरक्त करै है। यद्यपि याकौं उपदेश कडवा भी लागें है तथापि मुनि जाने हैं यह बहुत दुखी होसी, ताक् दयाकरि उपदेश दिया ही करै हैं। उन मुनिनिकै अन्य किछु अभिलाष नाहीं । देखो महंत पुरुष ऐसै पर उपकारी हो हैं। __ आणु जीव तौ शरीरते विमुख न हो है, अर मुनि है सो ज्ञात सार उपदेशनिकरि तिस जीवकौं शरीर” विमुख करै है सो काहै तै करें हैं, ऐसे पूछ उत्तर कहै हैं
__बसंततिलका छन्द इत्थं तथेति बहुना किमुदीरितेन, भूयस्त्वयैव ननु जन्मनि भुक्तभुक्तम् । एतावदेव कथितं तव संकलय्य,
सर्वापदां पदमिदं जननं जनानाम् ।।९८॥ .. अर्थ-ऐसे हैं तैसैं या प्रकार बहुत कहनें करि कहा साध्य है ? हे जीव! तैं ही संसारविषै शरीर है सो वारंवार भोग्या भोग्या और छोड्या, तेरै तांई संकोचकरि इतना ही कह्या है । जीवनिकै यह सरीर है सो सर्व आपदानिका स्थानक है।
भावार्थ-दाष्र्टात तो बहत कह्या। अर तेरा भला न होना है तो घना कहना निष्फल है। तें ही अनादितै शरीर धारि तहां अनेक दुःख भोगि वाकौं छोरि नवीन शरीर धारया सोहम संक्षेपकरि अब इतना ही कहै हैं यह शरीर ही जन्म, मरण, क्षुधा, तृषा, रोगादि सर्व दुःखनिका स्थानक है। तारौं शरीरत विरक्त होइ, जैसे शरीरके संबंधका अभाव होइ तैसै उपाय करना योग्य है।
आज तिस शरीरकौं ग्रहण करत संता गर्भ अवस्थाविषै कहा करत संता कैसा हो है सो कहै हैं
__ मन्दाक्रांता छन्द अन्तर्वान्तं वदनविवरे क्षुत्तृषार्तः प्रतीच्छन्कर्मायत्तः सुचिरमुदरावस्करे वृद्धगृद्धया। . निष्पन्दात्मा कृमिसहचरो जन्मनि क्लेशभीतो मन्ये जन्मिन्नपि च मरणात्तन्निमित्ताद्विमेषि ॥९९।। अर्थ-हे प्राणी ! तूं माताका उदररूपी विष्टास्थानविर्षे कर्मकै
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