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आत्मानुशासन प्रज्ञे दुर्लभा सुष्टु दुर्लभा सान्यजन्मने । . तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ते ते शोच्याः खलु धीमताम् ।।९४॥ अर्थ संसारविर्षे विचाररूप बुद्धि होनी ही दुर्लभ है। बहुरि परलोककै अर्थि सो बुद्धि होनी अतिदुर्लभ है । बहुरि तिस वुद्धिकौं पाइकरि जे प्रमादी रहै हैं ते जीव ज्ञानवानौंके सोचने योग्य है।
भावार्थ-एकेंद्रियादि असैनीपर्यंत सर्व अर अपर्याप्त आदि केई सैनी इनिकै तो मनका विचार है ही नांहीं । अर संसारविर्षे इन ही पर्यायनिविर्षे बहत भ्रमण करना तातै प्रथम तौ बुद्धिकी प्राप्ति होनी ही कठिन है। बहुरि कदाचित् कोऊकै बुद्धिकी प्राप्ति होई तौ परलोककै अथि धर्मरूप विचार होनां महाकठिन है। अनन्तवार मनसहित होइ तौ भी धर्मबद्धि किसीही जीवके हो हैं। बहुरि कोई भाग्यकरि धर्मबुद्धिकौं भी पाइकरि जे सावधान नहीं रहै हैं, धर्म साधनविषै शिथिल रहै हैं, तिनकी चिंता बुद्धिवानौंकै हो है जो जैसा अवसर पाइ चूक हैं, इनिका कहा होनहार हैं । ता” धर्मबुद्धि पाइ प्रमादी होना योग्य नाहीं है । ____ आर्गे पाई है बुद्धि जिनूने अर अद्भूत पराक्रमीके धारी हैं, बहुरि लक्ष्मी के विलासका अभिलाषाकरि राजानिकी सेवा करै हैं तिनका पश्चात्ताप करता संता सूत्र कहै हैं
__ वसन्त तिलका छन्द लोकाधिपाः क्षितिभुजो भुवि येन जातास्तस्मिन् विधौ सति हि सर्वजनप्रसिद्धे । शोच्यं तदेव यदमी स्पृहणीयवीर्यास्तेषां बुधाश्च वत किंकरतां प्रयान्ति ॥९॥
अर्थ-जिस धर्म विधानकरि लोकके स्वामी राजा भये तिस सर्वलोकविषै प्रसिद्ध धर्म विधानका होत संतें जो वांछने योग्य है पराक्रम जिनका ऎसे ए ज्ञानी तिनि राजानिका किंकरपनांकौं प्राप्त होय हैं, सोई सोचने योग्य है । ऐसा कार्य काहेकौ करै है इस विचारतें हम खेद हो है । ___भावार्थ-राज्यपद है सो धर्मका फल है । औसै लोकविर्षे प्रसिद्ध है। बहुरि धर्म साधनकी सर्व सामग्री मिलने” धर्म साधन होइ सकै अर आप बहत पराक्रमी धर्म साधनैंक समर्थ । बहुरि आप ज्ञानी धर्म का फलकौं पहचानें अँसें होत संते भी धर्म तौ न साधै अर धनादिकका लोभ लिएं राजानिकों से तो तिनकी चिंता हमकौं ही है । जो राजा जाका कोया
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