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________________ स्वहितमें विवेक होना दुर्लभ भावार्थ-लोकवि तो जैसे प्रसिद्ध है जाका बहुत सेवन भया हो तिसविर्षे अनादर होइ, अर जो अपूर्व लाभ होइ तिस विषै प्रीति होइ । सो तेरे रागादिकका सेवन तौ अनादित भया तिसविर्षे ही तेरै आसक्तता पाईए है अर सम्यग्दर्शनादिकका अपूर्व लाभ है तिसविर्षे तेरी प्रीति नांहीं सो वह लोक प्रसिद्ध वचन झूठ कैसे करै है यह बड़ा आश्चर्घ्य हैं। ___ आगें दोषनिविर्षे आसक्त व्यसनी हित-अहितकी भावना न करता जैसा जो तूं सौ तैं संसारविर्षे मरणादि दुःख पाया, ऐसा दृष्टांतसहित दिखावता संता सूत्र कहै हैं बसन्ततिलका छन्द हंसने . भक्तमतिकर्कशमम्भसापि नो संगतं दिनविकासि सरोजमित्थम् । नालोकितं मधुकरण मृतं वृथैव प्रायः कुतो व्यसनिनां स्वहिते विवेकः ॥९३।। अर्थ-जी कमल है सो हंसनिकरि भोग्या नाहीं है । अति कठोर है। जलकरि भी एकीभूत नाहीं किया है, दिन ही विर्षे फूल है । ऐसें भ्रमर है तीह विचार न किया । बहुरि वृथा ही गंधका लोभी होय वा सो व्यसनी है तिनकै बाहुल्यपने अपने हितविर्षे विवेक कहांत होइ, न होइ । भावार्थ-इहां अन्योक्ति अलंकारकरि दृष्टांत ही करि दाष्टांत का सूचन कीया है । जैसैं भौंरा कमलविर्षे गंधका लोभर्तं तिष्ठता जैसा विचार नांही करै है जो हंस याकां सेवन न किया है यह कठोर है, जलतें न्यारा ही रहै है, रात्रि विर्षे मुद्रित हो है । बहुरि वह भौंरा आसक्त हुवा तहां ही मरण पावै है, तैसैं सरागी जीव विषयसामग्रीनिविर्षे सुखका लोभतें सेवन करता असा विचार नांहीं करै है जो महान पुरुष इनका सेवन न कीया है, ए कठोर दुखदायक हैं, निर्मल आत्मस्वभावतें न्यारे ही रहै हैं, पाप उदय आए विघटि जाय हैं । बहुरि वह सरागी वृथा ही पापबंधकरि नरकादिकका पात्र हो है । सो व्यसनी होइ तिनकै अपने हितका विचार होइ सकता नाही। आशक्तताकरि पहलै तौ किछु न भासै, फल लागै तब आपही दुख भोगवै। आगें तिस दोषका न अवलोकनेवि सम्यग्ज्ञानका अभाव है सो कारण है, जातै संसारविर्षे भ्रमता प्राणीकै तिस सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिको अतिदुर्लभपनों है जैसे कहैं हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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