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आत्मानुशासन
रह्या चाहै है । याका नाशका उपाय नांहीं करै है, सो यहु तेरी पुरुषार्थताकी हीनता तौ ही कौं दुखदायक होसी । ___ आगें वृद्ध अवस्थाविर्षे इंद्रियादिकनिकी जैसी प्रवृत्ति देखता जो तूं सो तुझकों निश्चित रहना योग्य नाही, असे कहै हैं
अश्रोत्रीव तिरस्कृतापरतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिः चक्षीक्षितुमक्षमं तव दशां दृष्यामि वान्ध्यं गतम् । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोऽप्ययं कम्पते निष्कम्पस्त्वमहो प्रदीप्तभवनेप्यास्से जराजर्जरे ।।९।।
अर्थ-वृद्ध अवस्थाविर्षे कान हैं सो मांनू औरनिकरि कीया हुआ अपमान निंदादिरूप तिरस्कार लीएं वचन तिनकों न सुन्यां चाहता संता सुननेते रहित भया है। बहुरि नेत्र है सो मांन तेरी निंद्य दशा देखनेंकों असमर्थ होत संता अंधपनाकौं प्राप्त भया है । बहुरि यह शरीर है सो मानूं सन्मुख आया कालत भयकरि बहुत कांपै है। औसैं जराकरि जीर्ण भया अग्नि लाग्या मंदिरवत् शरीरविर्षे तूं निश्चल तिष्ठ है सो बड़ा आश्चर्य है। ___ भावार्थ-मरण तो सर्व अवस्थाविर्षे हो है । तार्तं स्याना होय सो तौ निचित रहै नांही, पहले ही परलोकका यत्न करै । बहुरि वृद्धअवस्था आएं तौ अवश्य मरन होनेका नेम है । बहुरि विषयादिकके कारन सन शिथिल भए, अब भी इहां ही रहनेकी आशाकरि निश्चित होय रह्या है। सो जैसे कोई आगिकरि बलता मंदिरविर्षे निश्चित तिष्ठै ताका आश्चर्य होय, तैसें तेरी दशा देखि हमकू आश्चर्य भया है । अब निश्चित रहे उपायका अभाव देखि तोकौं सावधान किया है। ___ आगें तहां तिष्ठता जीवकौं सीख देते संता, “अति परिचितेषु" इत्यादि सूत्र कहै हैं
आर्या अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत्प्रीतिरिति हि जनवादः । त्वं किमिति मृषा कुरुषे दोषासक्तो गुणेष्वरतः ।।१२।।
अर्थ-जिनका बहुत परिचय संसर्ग भया होय तिनविर्षे तो अनादर होइ अर नवीनविर्षे प्रीति होइ जैसी लोकोक्ति है । बहुरि तूं औसैं रागादिदोषनिविर्षे आसक्त होत संता अर सम्यग्दर्शनादि गुणनिविर्षे प्रीति न करत संता तिस लोकोक्तिकौं मिथ्या कैसे करै है।
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