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गुरुका स्वरूप
५९ आगै जे जीव बुद्धिकी शुद्धताकरि संयुक्त होत संते अर मोहकरि रहित है चित्त जिनका ऐसे होत संते परलोककै अर्थि चिन्ता करै हैं ते जीव थोरे हैं ऐसा कहै हैं
इष्टार्थोद्यदनाशितं भवसुखक्षाराम्भसि प्रस्फुरन्नानामानसदुःखवाडवशिखासंदीपिताभ्यन्तरे । मृत्यूत्पत्तिजरातरङ्गचपले संसारघोरार्णवे मोहग्राहविदारितास्यविवराद् दूरे चरा दुर्लभाः ।।८७।। अर्थ संसाररूपी भयानक समुद्रविर्षे मोहरूपी ग्राहका फाड्या हुआ जो मुख तिसत जे दूरि विचरैं हैं ते दुर्लभ हैं । कैसा है संसार समुद्र, इष्ट विषैकरि निपज्या जाकरि तृप्ति होइ ऐसा सांसारिक सुख सोई खारा जल जा विर्षे पाइए ऐसा है। जैसे समुद्रविर्षे खारा जल ताकौं पीएं तृषा न मिटै तैसैं संसारविर्षे विषयसुख हैं ताकरि तृषा दूरि न होहै । बहुरि नाना प्रकार मानसिक दुःख सोई भया बडवानल ताकरि तप्तायमान है अभ्यन्तर जाका ऐसा है। जैसैं समुद्रविर्षे वडवानल है सो जलकौं सोखे ऐसा तप्तायमान है तैसें संसार विर्षे मानसिक दुःख है सो विषय सुखकों न भोगव दे ऐसा संतापरूप है । बहुरि मरण, जन्म जरारूपी तरङ्ग तिनि करि चपल है। जैसैं समद्रविर्षे तरंगनिकी पलटनि हो है तैसैं संसाविर्षे जन्म जरा मरणादि अवस्थानिकौ पलटनि होहै ऐसा संसार समुद्रविषै मोहरूपी ग्राह जलचर जीव बसे हैं, सो अपना मुख फाडि रह्या है, उदय को व्यक्त करि रह्या है, तिसते जे दूरि विचरै हैं, याके उदयविर्षे तद्रूव होइ विकारी न होहैं ते जीव दुर्लभ हैं, थोरे हैं। जो संसारविर्षे ऐसे घने होइ तो संसार कैसे बसै । ऐसें थोरे हैं याहीतैं संसार पाइये है।
आगै मोहके मुखौं दूरि विचरता दुद्धर आचरन आचरता ऐसा जो तूं सो तेरे भलै प्रकार पाल्या हबा भी शरीर जो ऐसे हरिणीनिकरि देखिए तो तूं धन्य है ऐसा कहे हैं
मन्दाकान्ता छन्द अव्युच्छिन्नैः सुखपरिकरैालिता लोलरम्यैः श्यामाङ्गीनां नयनकमलैरर्चिता यौवनान्तम् । धन्योऽसि त्वं यदि तनुरियं लब्धबोधेम गीभि
दग्धारण्ये स्थलकमलिनीशंकयालोक्यते ते ।।८८॥ १. ताकरि तप्तायमान है । तेसैं संसारविर्षे मानसिक दुःख है । ज० उ० ८७-५
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