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आत्मानुशासन
अनुष्टप छन्द धनरन्धनसंभारं प्रक्षिप्याशाहुताशने । ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संधुक्षणक्षणे ।।८५।। अर्थ-भ्रमसहित जीव है सो आशारूपी अग्निविर्षे धनरूपी ईंधनका समहकौं क्षेपिकरि आशा अग्निका बधावनेंरूप जो संधुक्षण ताका कालविर्षे ज्वलता जो अपना आत्मा ताकौं शान्त भया सुखी भया मानें है । ___ भावार्थ-जैसैं कोई बावला थोरी अग्निकरि आप जलै है । बहुरि वामैं ईंधन डारि अग्निकौं बधाइ बहुत जलने लगा तब आपकौं शीतल भया मानैं । तैसैं भ्रम भावसहित करि आत्मा आशाकरि आप दुखी होय रह्या है । बहुरि आशाबिर्षे धनादिक सामग्री मिलाइ तिस आशाकौं बधाइ बहुत दुखी भया तब आपकौं सुखी मानें है। परमार्थतें सुखी नांही हो है। धनादि सामग्री मिलें तृष्णा बधै दुख बधै, तातें धनादिक दुःखका कारण है। याही तें धनादिकका कारण कुटुम्बादिक सो भी दुःख ही का कारण शत्रु जानना। ___ आगें ऐसैं भ्रमरूप मानता जो तूं सो तेरै कहा कहा हो है सो कहै हैं
आर्याछन्द पलितच्छलेन देहान्निर्गच्छति शुद्धिरेव तब बुद्धेः । कथमिव परलोकार्थ जरी वराकस्तदा स्मरति ।।८६।।
अर्थ-स्वेत केशका मिस करि तेरी बुद्धिकी शुद्धता है सो ई शरीरतै निकसै है । तहाँ वृद्ध अवस्था सहित असमर्थ भया जो तूं सो परलोककै अथि कैसैं स्मरण करै है । किछू बिचार होइ सकता नाही । ___ भावार्थ-तूं ऐसा विचारैगा जो यौवन अवस्थाविषै तौ धन स्त्री आदि सामग्री मिलाइ इस लोकके सुख भोगनें। अर व द्ध अवस्थाविर्षे धर्म सेय परलोकका यत्न करेंगे । सो व द्ध अवस्था आए हम ऐसी उत्प्रेक्षा करें हैं जो तेरे श्वेत केश निकसै हैं ताका मिस करि तेरी बुद्धिकी शुद्धता निकसे है । बहुरि बुद्धिकी शुद्धता गए वर्तमान इस लोकके कार्यनिका भी विचार न होइ सकै तौ आगामी परलोककै अथि विचार कैसे होइ सकेगा ? तातै वृद्धअवस्था पहले ही धनादिकौं दुःखका कारण जानि परलोककै अथि यत्न करना योग्य है । १. साठी बुद्धि नाठी लोकोक्ति ।
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