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जन्म-मरण ही संसार है
ज्योति प्रकाश है । कैसा है राहु अर कैसा है काल नाहीं जानिये स्थान जाका, सो कालकी तौ प्रकट दशा सब ही जाने हैं अर राहुका कोऊ वार नाहीं । तातें लोक याहूकौं स्थान रहित कहे हैं । अर काल तो शरीर रहित है ही अर राहुकूं भी लोक अतनु कहै हैं । अर काल लोकनिक सै है सो काहूकू ग्रसै सो ही पापी । सो कालकू पापी कहै हैं । जो पापी सो ही मलीन तातैं कालका दृष्टान्त दिया ।
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अर राहुकू पापग्रह कहै हैं अर स्याम है
भावार्थ - षट् द्रव्यनिमैं काल द्रव्य है सो तो अपनी अमूर्त्त जड सत्ताकरि विराजमान है, काहूका हर्ता नाहीं । परन्तु कालकी व्यवहार : पर्याय समय, पल, घटिकादि हैं । सो जाकी थिति जा समैं पूर्ण होय ताही समय देह देहान्तर गमन करै । यह छल देखि लोक कहै हैं काल मा हैं । आगे कहै हैं कि काल कहाकरि कौन स्थानविषै प्राणनिको हते है
वसन्ततिलका छन्द
उत्पाद्य मोहमदविह्वलमेव विश्वं
वेधाः स्वयं गतघृणष्ठकवद्यथेष्टम् ।
संसार भी कर महागहनान्तराले
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हन्ता निवारयितुमत्र हि कः समर्थः ||७७ ||
अर्थ - वेधा कहिए पूर्वोपार्जित कर्म सो यथेष्ट ठगकी नाई निर्दई मोहमद उपजाय विश्व जो त्रैलोक्य ताकों विह्वलकरि संसाररूप भयानक वनविह है । तहां ताहि कौन निवारिबे समर्थ ?
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भावार्थ — ठिग निर्दई अर मूढ लोकनिक अमलकी वस्तु दे मद उपजाय विह्वलकर गंभीर वनमें मारे है । त्यों ही महा निर्दयी कर्मरूप ठिग मोह महामद उपजाय समस्त अज्ञानी जीवनिकू संसारवनविषै हणें है, कौन बचाय सकै ? कालका कारण कर्म है। जिनके कर्म है ते कालवशि हैं । सिद्धनिकेँ कर्म नाहीं, तातैं कालवशि नाहीं ।
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आगे कहै हैं कि कोऊ देश कोऊ कालविषै कालतैं बचनेका उपाय नाहीं । सर्व देश, सर्व कालविषै काल ग्रसै है । कालका यत्न कर्मनिका परिहार सो ही कालपरिहार
कदा कथं कुतः कस्मिन्नित्यतयः खलोऽन्तकः । प्राप्नोत्येव किमित्याध्वं यतध्वं श्रेयसे बुधाः ||७८||
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