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________________ ५४ आत्मानुशासन . अर्थ-पंडित जन जे सम्यग्दृष्टि ते आत्म-कल्याणके निमित्त यत्न करहु । काल आय प्राप्त होय तब यत्न किये न रहै। कौन समय कौन प्रकार कौन क्षेत्रविर्षे कहांत काल आवै है ऐसा विचारमैं न आवै । दुष्ट काल अणचीत्या ही आवै, तातें आत्मध्यानकरि अविनाशी होनेका यत्न करहु । भावार्थ-आत्मस्वरूपमें मग्न भए कालका निवारण होइ । रागादिकके परिहार बिना और काह यत्नकरि कालका निवारण नाहीं। मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र औषधादिककरि कालकू दुनिवार जानि मौनि गहि तिष्ठो। ____ आगे कहै हैं-सब ही देश-कालादिवि मरन होय है । कोऊ ही देश काल मृत्युसँ अगोचर नाहों, ऐसा प्रत्यक्ष देखिकरि निश्चित होइ रहै । असामवायिक मृत्योरेकमालोक्य कञ्चन । देशं कालं विधि हेतुं निश्चिन्ताः सन्तु जन्तवः ।।७९।। अर्थ-कोऊ देश, कोऊ काल, कोऊ विधि, कोऊ कारुण मृत्युः अगोचर देखिकरि ए प्राणी निश्चित तिष्ठो । ___ भावार्थ-जगतविर्षे ऐसा कोऊ देश नाहीं जामैं मरण न होइ, बहुरि ऐसा कोई काल नाहीं जामैं प्राणी न मरै । अर ऐसी कोऊ विधि नाहीं जाकरि मरण मिटै । अर ऐसा कोऊ औषधि नाहीं, उपाय नाहीं जाकरि काय बचै, तातें सबको सर्वथा कालवशि जानि आत्मकल्याणविर्षे अवश्य उद्यमी होना योग्य है । एक आत्मज्ञान ही कालतें वचबेका उपाय है । सब ही क्षेत्रवि सदा कोल सर्वथा प्रकार कोऊ ही कारणकरि कोऊ ही प्राणी कालतें न बचे। ___ आगै आयु' विनस्वर बताय स्त्रीको निन्दा करते संते ताके तन... अकल्याणका कारण दिखाबै है हिरणी छन्द अपिहितमहाधोरद्वारं न कि नरकापदा मुपकृतवतो भूयः किं तेन चेदमपाकरोत् । कुशलविलयज्वालाजाले कलत्रकलेबरे कथमिव भवानत्र प्रीतः पृथग्जनदुर्लभे ।।८।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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