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________________ ५२ आत्मानुशासन रक्षा करी अर वा बाहिर अनंता अलोकाकाशकरि वेष्टित किये । अर जे नारकी' दुष्टपरिणामी हुते ते अधोलोकमैं थापे । अर ऊर्द्धलोकविषे देवनिकू थापें । मध्यमैं मनुष्यानिकों राखे, तोऊ मनुष्य मरण न बचे । तातें यह निश्चय भया कि मनुष्यनि कौ पति जो विधाता अथवा चक्रवर्ती इन्द्र आदि कोऊ रक्षक नाहीं, ए काल अत्यन्त अलंघ्य है । भावार्थ – अनेक उपाय करिये तोऊ कालसू न बचिये । मनुष्यनिकों हीनबली जानि विधिरूप मन्त्रीने अनेक रक्षाके उपाय किये। ऊपरिकी रक्षा तौ देवनिकरि करी, अर अधोलोकविषै नारकी थापै अर तीन वातवलामिका वारला कोट अर असंख्यात द्वीप - समुद्रनिका तीसरा मांहिला कोट इत्यादि रक्षाके उपाय किये, परन्तु रक्षा न भई । काल रोक्या न जाय । काल अलंघ्य है । तातैं शरीरकी रक्षाकौं तजि धर्मकी रक्षा करनी । आत्मा तो अविनस्वर है, परन्तु देहतें नेहकरि नवे २ देह धारे है,. . तातैं जन्मता मरता कहिए । निश्चय नयकरि न जन्मै न मरै । ऐसा अपना स्वरूप जानि देहादिकतें नेह तजिए तौ नवे देह न धरिये । यह ही मुक्ति होनेका उपाय है। आगे है हैं कि आयुकी स्थिति पूर्ण होतें काल प्राण लेवैका उद्यम करै ताहि निवारिवैकौं कौन समर्थ ? शिखरणी छन्द अविज्ञातस्थानो व्यपगततनुः पापमलिनः खलो राहुर्भास्वद्दशशतकराक्रान्तभुवनम् । स्फुरन्तं भास्वन्तं किल गिलति हा कष्टमपरः परिप्राप्ते काले विलसति विधौ को हि बलवान् ॥ ७६ ॥ अर्थ - हाय ! यह बड़ा कष्ट है। निश्चयसेती आयुकर्मके पूर्ण होतें काल आय प्राप्त होय है तब ऐसा और कौन बलवान जो रक्षा करे ? कोई ही रक्षा न कर सकै । जैसे नवग्रहमैं दुष्ट जो राहु सो ग्रहणका समय सहस्रकिरण जो सूर्य अपनी किरणनिकरि उद्योत किया है भुवनविषै पदार्थं जानें ताहि ग्रहै है, सो कोऊ टारिवे समर्थ नाहीं । जैसे ग्रहणका अउसर पाय राहु सूर्यकौं ग्रस है तैसै आयुके अन्तका समय पाय कालरूप राहु जीवरूप सूर्यकू ग्रस है । सूर्य तो सहस्रकिरण है अर जीव अनन्त १. रक्षा करी । अर जे नारकी ज० उ० ७५-६ २. निश्चय भया कि जीवनिका कोऊ नाहीं ज० उ० ७५-७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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