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मोक्षका कारण आत्मज्ञान
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अर्थ – यह उस्वास खेदकरि उपजे तातैं दुःख ही है अर याहीके होते जीवना है । बहुरि उस्वासके अभावविषै मरना है । कहो जु प्राणीनिकै सुख कहाँ हो ।
भावार्थ — जहाँ खेद नाहीं सो सुख, सो उस्वास तो खेद ही करि उत्पन्न है अर उस्वास है तौं लग ही जीवना । तातैं जीवेमें भी सुख नाहीं । अर स्वास गयें मरनां सो मरवेमें जीव ही नाहीं तौ सुख कौनकै होइ । तातैं कहो जु जीवनिके सुख कहाँतें होय । या शरीरका सम्बन्ध तो दुःख ही का कारण है । देहसँ नेह तजैं वीतराग भावमें सुख होय है सो ही अंगीकार करना ।
आगे है हैं कि जन्म मरणके मध्य वर्तै ए प्राणी तिनिकै ता काल जीवनेका विश्वास ?
अनुष्टुपछन्द
प्रच्युतान्यधः ।
जन्मतालद्रु माज्जन्तुफलानि अप्राप्य मृत्युभूभागमन्तरे स्युः कियच्चिरम् || ७४॥ अर्थ — जन्मरूप तालकै वृक्षतें जीवरूप फल पडै सो मृत्यु भूमिहीकों प्राप्त होहि, अन्तरालमें थोरा ही रहै बहुत न रहे ।
भावार्थ–संसारमें जीवनां थोरा । जैसे वृक्षतँ फल टूटे सो पृथ्वीही मैं पर्डे, बीचिमें कोलग रहे । तैसे जन्में सो मरे, आयुमें कौलग रहैं, थोरा ही है । तातैं देहादिक क्षणभंगुर जानि आत्मज्ञानके प्रभावकरि अविनाशी पदका साधन योग्य है ।
आगे है हैं कि जंतुनिकी रक्षाकै अर्थि अनादि कालतें विधिने यतन किया तौऊ रक्षा न करि सक्या
हिरणी छन्द क्षितिजलधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनैस्त्रिभिः परिवृत्तमतः खेनाधस्तात् खलासुरनारकान्
उपरि दिविजान् मध्ये कृत्वा नरान विधिमन्त्रिणा पतिरपि नृणां त्राता नैको ह्यलंघ्यतमोऽन्तकः ||७५ ।।
अर्थ - विधिरूप मंत्रीनैं मनुष्यनिकी अनेक उपायकरि रक्षा करी तौऊ न करि सक्या । भीतरिसौं असंख्यात द्वीप समुद्रानिके कोटमें इनिकं राखें— अर असंख्यात ही द्वीप - समुद्रनिकै बाहरि तीन वातवलानिकै कोटकरि
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