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... आत्मानुशासन शान्त भाव सो ही जिनकै प्रगट भया है और मूढ़ लोग शास्त्र हू के अभ्यासकरि मदोन्मत्त होय हैं। सो यह बड़ा दोष है । मुनिके मनका वेग मन्द होय गया है, लोकनिका मन महा चंचल सदा बाह्य वस्तुनि ही विर्षे भटकै है। मुनिका मन आत्मविचार विर्षे लगि रह्या है, कबहुक बाह्य शभ क्रियाविषै ह आवै है, अशुभ क्रियाका नाम नाहीं । यह दशा मुनियोंकी भई, सो मैं न जानं कौनसे उत्कृष्ट तपका फल है। जिनके अतुल वैराग्य संसार, शरीर, भोगतै अति उदास । जगत के जीव सब ही रागी हैं जिनके राग द्वेष का तीव्र उदय है। अर अव्रत सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीके अभाव तैं यद्यपि मिथ्यादृष्टिनि सौं रागी नाहीं तथापि अप्रत्याख्यानके उदयतै रागी हैं। अर अणुव्रती श्रावक यद्यपि अप्रत्याख्यानके अभावतें अव्रत सम्यग्दृष्टिनि तैं अधिक हैं तथापि प्रत्याख्यानके उदयतें अल्प रागी हैं । अर मुनिके प्रत्याख्यानका हू अभाव भया, तातै विषयानुराग तो सर्वथा मिट्या, संज्वलनके उदयतें कछू इक धर्मानुराग रह्या है सो छ7 गुणस्थान है । आगै ऊपरिले गुणस्थाननि विर्षे वीतरागभाव ही की वृद्धि है । तातैं मुनिकै अतुल वैराग्य ही कहिये । धर्मानुराग है सो वीतराग भाव ही का कारण है । बहुरि मुनिके छठे गुणस्थान शास्त्रका चिन्तवन है। ऊपरले गुणस्थानविर्षे आत्मध्यान ही है। शास्त्रका ज्ञान मुनियोंका सा औरनि के नाहीं। अज्ञानी जीव तौ विकथा ही विर्षे आसक्त हैं, शास्त्रका अनुराग नाहीं । अर सम्यग्दृष्टी अव्रती तथा अणुव्रती श्रावक यद्यपि जिनसूत्रके अभ्यासी हैं, तथापि परिग्रहके योग” अल्पश्रुती ही हैं, बहुश्रुतो नाहीं। शास्त्रके पारगामी बहुश्रुत मुनि ही हैं। अर जीवदया मुनिकी सी औरनिके नाहीं। अर अज्ञानी जीव तो सदा निर्दई हैं । अर अव्रत सम्यग्दृष्टि भावनिकरि तौ दयारूप ही हैं। तथापि बहु आरम्भ परिग्रहके योग तैं दया नाहीं पलै है। अर अणुव्रतीनिकै अल्पारम्भ अल्पपरिग्रहके योग” अल्प हिंसा है। त्रसकी तौ सर्वथा हिंसा नाहीं। थावर जीवनिकी हिंसा है। तातै सर्वथा हिंसा न कहिये । सर्वथा अहिंसा मुनि ही के है । मुनि महा दयावान हैं। अर मुनिनिकी बुद्धि सदा एकान्तवादरूप अन्धकारके हरनेकूँ सूर्यकी प्रभा समान है। औरनिकी बुद्धि ऐसी प्रकाशरूप नाहीं । यद्यपि सम्यग्दृष्टि श्रावकनिकी बुद्धि एकान्तवादरूप तिमिर” रहित स्याद्वाद श्रद्धान. परिणई है तथापि मुनिनिकी शिक्षावृत्य लिये है। स्याद्वाद विद्याके गुरु मुनि ही हैं । अर अन्तकाल मुनियोंके अनशन तपकरि शरीरका तजना है। उत्कृष्ट आराधना मुनियों ही के है। अणुव्रती श्रावकके मध्य आराधना है। अर अव्रत सम्यग्दृष्टिके जघन्य
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