SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीरकी रक्षा कठिन ४९ आराधना है । और जगवासी जीव आराधना रहित विराधक ही हैं । यह मुनियोंकी अलौकिक वृत्ति कही सो अल्प तपकी विधिका फल नहीं, पूर्ण तपका फल है । आगे कोऊ प्रश्न करे है कि तप करतें कायक्लेश होय सो अयुक्त है । शरीर धर्मका साधन सो यत्न थकी राखना, ताका समाधान करे हैं : उपाय कोटिदूरक्षे स्वतस्तत इतोऽन्यतः सर्वतः पतनप्राये काये कोऽयं तवाग्रहः || ६९ ।। अवश्यं नश्वरैरेभिरायुः कायादिभिर्यदि । शाश्वतं पदमायाति मुधाऽऽयात मवेहि ते ॥ ७० ॥ अर्थ - हे प्राणी ! तेरा या शरीरविर्षं कौन आग्रह है जो मैं याकी रक्षा करूँ । यह तौ कोटि उपायकरि राख्या न रहै । सर्वथा परिवे ही कँ सन्मुख है, जैसे डाभकी अणीपर पड़ी ओसकी बूंद परिवेरूप ही है । आप - थकी तथा अन्यथकी या शरीरकी रक्षा न होय । ये आयु कायादिक अवश्य विनाशीक हैं । अर इनके ममत्व तजिबेकरि जो अविनाशी पद तेरे हाथि आवे तो सहज आया जानि । भावार्थ-आयु हू विनश्वर अर काय हू विनश्वर । उत्कृष्ट आयु देवनारकीनिकी सागर तेतीस सो हू विनश्वर, तौ मनुष्य तिर्यंचनिके अल्प आयु की कहा बात ? अर देवनिका निरोग मनोहर शरीर सो हू कालकै बशि, तीर्थङ्करादि पुराण पुरुषनिका शरीर सोऊ विनाशीक तो औरनिके शरीरकी कहा बात ? तातैं यह निश्चय भया, आयुके अन्त भए शरीर न रहे, अर आयु प्रमाणतें अधिकी नाहीं । तातै आयुका अर कायका ममत्व तजि अपने अविनाशीक स्वरूपका ध्यान कर । कायकूँ तपसंयममें लगाय आयु धर्म पूर्ण करै तो अविनाशी पदका पात्र होय । या अल्प आयु अर चंचल कायकै बदलै शाश्वता पद मिले तो फूटी कोड़ी साटें चिन्तामणि रत्न आया गणिए । दो श्लोकनिकरि आयु कौं विनाशीक दिखावैं हैं - अनुष्टुप् छन्द गन्तुमुच्छ्वासनिःश्वासैरभ्यस्यत्येष संततम् । लोकः पृथगितो वाञ्छत्यात्मानमजरामरम् ||७१ ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy