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________________ मुनियोंके गुणों की प्रशंसा हरिणी छन्द विरतिरतुला शास्त्रे चिन्ता तथा करुणा परा मतिरपि सदैकान्तध्वान्तप्रपञ्चविभेदनी अनशनतपश्चर्या चान्ते यथोक्तविधानतो 1 भवति महतां नाल्पस्येदं फलं तपसो विधेः ||६८|| अर्थ- मुनिनिकी कहा महिमा कहिये। जिनके स्वाधीन तो विहार है अदीनता रहित भोजन है, अर मुनिनिके संघमें' निवास है । शान्तभाव ही हैं फल जाका, मनका वेग मन्द हो गया सो आत्मविचार ही में लीन । चिरकाल आत्मविचार करता कबहूक बाह्य क्रियाविषै आवे है । ऐसी मुनिकी परमदशा भई सो हम न जानें यह कौनसे उदार तपकी परणति हैं। अतुल वैराग, अर शास्त्रका चिन्तवन, सर्वोत्कृष्ट सर्व जीवनकी दया, अर एकान्तवाद एक नयका हठग्राह सोई महा अन्धकार ताकै विस्तारकं भेदनहारी सूर्य की किरण समान है बुद्धि जिनकी, अर अन्तकाल शास्त्रोक्त विधिकरि अनशन धारि शरीर तजना । ए क्रिया सत्पुरुषनिके अल्प तपकी विधिका फल नाहीं, महा तपका फल है । भावार्थ - सब ही जीव पराधीन हैं, इन्द्रियनिके वशि हैं । जो गमन हू करे तो कामना अर्थि । अर साधुनका विहार स्वाधीन है। जिनके कोऊ कामना नाहीं । मुनि कूं वर्षा ऋतु बिना एक स्थान न रहना। एक ठौर रहे लोकनितैं नेह बढे। सो वैराग्यभाव की वृद्धिके अर्थ विहार करे । अर दीनता रहित भोजन करै । जगतके जीवनिका भोजन दीनतारूप है । जे दरिद्री हैं तिनिकै तो प्रगट ही दीनता दीखे है । घरमैं तौ सामग्री नाहीं । पर घर तैं ल्याये कार्यं सरै तो मिलना कठिन । अर जे धनवान हैं ते नाना वस्तूनि के अभिलाषी सो देश - कालके योगतें कछू पूर्ण होय कछू न होय तातें दीनता सहित हैं । एक मुनि ही दोनता रहित हैं, जिनके लाभ अलाभ, रस- नीरस सब समान हैं । अर मुनि मुनियूँके संगममें रहना, ता समान कोऊ उत्कृष्ट नाहीं । लोकनिकै कुसंग है । बड़ा कुसंग तो स्त्रीकी संगति है, जाकरि काम-क्रोधादिक उपजे है । अर साधुनिकी संगतितैं काम-क्रोधादि विलाय जाँय । अर लोगनिके और अभ्यास लगि रहे हैं, साधुनि कै श्रुतका ही अभ्यास है । अर शास्त्र के अभ्यासका फल परम १. संगम मैं ज० द० पू० ६७-६८-४ Jain Education International ४७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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