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आत्मानुशासन - आगै या समभावकै दृढ़ करिबेकै अथिं राज्य लक्ष्मीकू त्याज्य कहै
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शार्दूलविक्रीडित छन्द आदावेव महाबलैरविचलं पट्टेन बद्धा स्वयं रक्षाध्यक्षभुजासिपञ्जरवृता सामन्तसंरक्षिता । लक्ष्मीर्दीपशिखोपमा क्षितिमतां हा पश्यतां नश्यति प्रायःपातितचामरानिलहतेवान्यत्र काऽशा नृणाम् ॥६२॥ अर्थ-हाय, हाय ! यह राजानिकी लक्ष्मी दीपशिखासमान बाहुल्यताकरि चंचल' ढुरते जे चमर तिनिकी पवनकरि मान देखतें देखतें विलय जाय है। जो राज्यलक्ष्मीकी ही यह वार्ता तौ मनुष्यनिकै और लक्ष्मीके रहनेकी कहा आशा ? या राज्यलक्ष्मीकू चञ्चल जानि प्रथम ही बलवन्त पुरुषनितें आप पट्ट बन्धके मिसकरि निश्चल बांधी । अर रक्षाके अधिकारी सामंत तिनकी खड्ग सहित भुजा सो ही भया वज्रपंजर ताकरि भली भांति जाकी रक्षा करी तोऊ न रहै, देखते देखतै जाती रहै।
भावार्थ-राज्यलक्ष्मी दीपशिखा समान अतिचंचल है। रक्षा करते करतें तत्काल विनशि जाय है। रक्षाके अथि बलवन्त पुरुषनि पट्ट बन्धके मिसकरि निश्चल बांधी। अर खङ्गके धारी सामन्त तिनिकी भुजारूप जो वज्रपंजर तामैं राखी तोऊ न रही। चक्रवर्तीनिकी लक्ष्मी ही क्षणभंगुर तौ औरनिके रहनेकी कहा आशा ? तातैं लक्ष्मीकू विनाशीक जानि अविनाशी विभूतिका उपाय योग्य है। उक्तं च स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाविषै
जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवत्ताणं ।
सा किं विधेइ रइं इयर जणाणं अपुण्णाणं ॥१०॥ ' अर्थ—यह लक्ष्मी महा पुन्याधिकारी चक्रवर्त्यादिकनिकै ही शाश्वती न रहै है तो औरनिके कैसें रहै ? ____आगे कहै हैं-जा शरीरविषै राज्य लक्ष्मीका पट्ट बांध्या सो यह शरीर कैसा है, अर या विर्षे तू कैसे दुःख भोगवे है ?
_ अनुष्टुप छन्द दीप्तो भयाग्रवातारिदारूदरगकीटवत् ।
जन्ममृत्युसमाश्लिष्टे शरीरे बत सीदसि ।।६३॥ १. समान चंचल ज० उ०
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