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धन आदि सुखके कारण नहीं निज जानै है सो विपतिके घरका द्वार है। अर पुत्र कू अति प्रिय जानै है सो तेरा बैरी है। जन्मैं तब तौ स्त्रीका जोबन हरै, अर बालक होय तब मिष्ट भोजन हरै, अर समरथ होय तब धन हरै। तातै पुत्र समान और बैरी नाहीं।' तातें इन सबनिकू तजि । सुखका अर्थी है तो एक निर्मल . जिन धर्मकू भजि। ___ आगै कहै हैं, कोऊ प्रश्न करै है:-ये गृहादिकतौ हम · उपकारी नाहीं, परन्तु धन तौ उपकारी होयगा, ताका समाधान करै हैं
शार्दूलछन्द तत्कृत्यं किमिहेन्धनैरिव धनैराशाग्निसंधुक्षणैः, . संबन्धेन किमङ्ग शश्वदशुभैः संबन्धिभिर्बन्धुभिः । किं मोहाहिमहाबिलेन सदृशा देहेन गेहेन वा देहिन याहि सुखाय ते समममुमा गाः प्रमादं मुधा ॥६१॥ __ अर्थ-हे प्राणी ! तूं वृथा ही प्रमादकू मति प्राप्त होहु । यह समभाव ताहि सुखके अथि प्राप्त होहु । तेरे या धनकरि कहा ? कैसा है धन ? आशारूप अग्निके प्रज्वलित करिबेकं इंधन समान है । अर हे मित्र ! तेरे निरन्तर पापके उपार्जन हारे ए सम्बन्धी अर बन्धु तिनिके ममत्त्वकरि कहा ? अर महामोहरूप सर्पके बिल समान ये देह ता करि कहा ? अथवा घर करि कहा ? तू सुखके अर्थि केवल समभाव । प्राप्त होहु । वृथा ही प्रमादी होय रागादिक भावनि। मत परिनमै ।
भावार्थ-या जीवकू दुःखके कारण रागादिक अर सुखका कारण एक समभाव, ताहीकै दृढ़ करिबे. श्रीगुरु भव्य जीवनि । उपदेश दे हैं। हे मित्र ! तन, धन, भ्रात, पुत्र, परिवार, घर अर सब सम्बन्धी दुख ही के कारण हैं, इनमें सुख नाहीं । तूं सुखाभिलाषी है तो प्रमादी मति होहु । समभावकू भजि । लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, बैरी-बन्धु, राव-रंक, संपदा-आपदा सब सम जानि । १. उप्पओ हरइ कलत्तं बड्ढओ लेइ बड्ढभाई । ____ अत्थं हरइ समत्थो पुत्तसमो वेरिओ णत्थि ।। २. सुखे दुखे वैरिण बन्धुवर्गे योगे वियागे भवने गने वा।
निराकृताशेषसमत्वबुद्धः समं मनो मेऽस्तुतवापि नाथ ।। सामायिक पा०प०३
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