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________________ इन्द्रियोंकी दासता दुःखका कारण ४५ अर्थ - जैसें लागी है दोऊ ओर अग्नि जाके ऐसी जो इरंडकी लकड़ी ताके मध्य प्राप्त भया जो कीट सो अति खेद - खिन्न होय है । तैसै ता कीटकी नाईं या शरोरविषै तू खेद - खिन्न होय है । यह शरीर जन्म-मरणकरि व्याप्त है । भावार्थ — इरण्डकी लकड़ीकै दोऊ ओर अग्नि लागे तब मध्य आय कीट कहां जाय, अति खेद - खिन्न होय मरे । तैसें जन्म-मरणकरि व्याप्त यह शरीर ता विषै तू कीट की नाईं अति खेद - खिन्न होय जरे है । तातें शरीरतें ममत्व तजि । जो बहुरि शरीर न धरै । या शरीर अनुराग सो ही नवे शरीर धरिवेका कारण है । ऐसा जानि महामुनि देहसू नेह तज्या । आगे कहै हैं कि वा शरीरके आश्रित जे इन्द्रिय तिनिकैं बशि होय तूं कहा अनेक प्रकारके क्लेश भोगवे है यह शिक्षा दे हैशार्दल छन्द नेत्रादीश्वरचोदितः सकलुषो रूपादिविश्वाय किं प्रेष्यः सीदसि कुत्सितव्यतिकरैरंहांस्यलं बृंहयन् । नीत्वा तानि भुजिष्यतामकलुषो विश्वं विसृज्यात्मवानात्मानं धनु सत्सुखी धुतरजाः सद्वृत्तिभिनिर्वृतः ॥ ६४ ॥ अर्थ - हे जीव ! तू कर्मनिके उदयतें नेत्रादि इन्द्रियनिका प्रेरया अति व्याकुल भया रूपादि समस्त विषयनिके अर्थ कहा खेदखिन्न होय है । इन इन्द्रियनिका किंकर ही होय रह्या है । अनेक खोटे आचरणकरि अत्यन्त पापकूँ बढ़ावता संता तिन विषयकूं भोगकरि तू अनन्ता भव दुखी भया । अब आकुलता तजि ज्ञानी होय समस्त विषयनिका त्यागकरि ध्यानामृत आत्माकं पुष्ट करि सुखी होहु । मोहरजकूं धोय उत्तम वृत्ति करि निवृत्ति होहु । भावार्थ--यह आत्मा कर्मनिके उदयकरि शरीर कू धारे है अर शरीरके योगतैं इन्द्रियनिके वशि होय विषय निकै अर्थि व्याकुल होय है । अर अनेक दुराचारकरि अत्यन्त पापनि बढावे है । विषयनिक भीगी कुयोनिमें पड़े है । अर जो ज्ञानवान मलिन भाव तजि आत्माकूं ध्यानामृतकरि पुष्ट करे है सो महा सुखी होय पाप-रज रहित उत्तम वृत्तिकरि निवृत्ति होय है । तातैं तू ज्ञानवान होय संसार तैं निवृत्त होहू । आगै कोऊ प्रश्न करै है— जतीनीकै निर्धनपनें तैं कैसे सुख की प्राप्ति होय ताकूँ कहैं हैं । जगतके जीव निर्धन अर धनवान सर्व ही दुखी हैं । यती ही महासुखी हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only 2 www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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