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________________ शरीररूपी कारागार है, अर पाप कर्मके फल दुःख सदा भोगवै है। अर समय समय कर्मकी प्रकृतिनिकरि आप गाढ़ा बँधे हैं, यही व्यापार है। अर निद्राविर्षे विश्राम करै है अर कालौं डरै है अर निश्चय सेती निरंतर मरै है। - भावार्थ-जगतकी ऐसी रीति है-जो दुःखका स्थानक होय तहाँ कोऊ न रमै । सो यह संसार सागर महादुःखका निवास ताविर्षे तूं रमै है, सो यह शरीरका धारण सोई दुःख । सबमैं उत्कृष्ट मनुष्यका शरीर जाकरि मुक्ति होय, ताहूकी यह दशा। प्रथम तौ पिताका वीर्य अर माताका रुधिर या की उत्पत्ति । अर गर्भवास माह अशुचि तामैं निवास, अधोमुख रहना अर गर्भकी अतिउष्मा सहना इत्यादि नाना प्रकारके दुःख । अर गरभतें निकस” महा दुःख । बहुरि बाल अवस्थामैं अति अज्ञान दशा सो कछु सुधि ही नाहीं। अर जोबन अवस्थामैं काम, क्रोध, लोभ, मान, माया, मोहादि अनेक विकार तिनिकरि सदा व्याकुल अर वृद्ध अवस्थाविर्षे अतिशिथिलता अर देवनिका शरीर पाया तामैं मन की अतिविथा, बड़ी ऋद्धिके धारी देवनि देखि आप। न्यून गिनि दुखी होय, अर आपनी देवांगनानिकू तथा और देवनिकू मरते देखि दुखी होय, अर अपना मरना आवै तब तो अति ही दुखी होय । अर तिर्यंच गतिके अनेक दुःख सों विद्यमान देखिए ही है। अर नारकीनिके दुःखकी कहा बात ? वै तौ दुःखमई ही हैं । तिनि. छेदन, भेदन, ताडन, तापनादि शरीरके दुःख अर मनकू महाक्लेश अर क्षेत्रजनित शीत-उष्ण, दुर्गंधादिकका दुःख, अर सकल रोग तहाँ पाइए । अर परस्पर दुःख, अर तीजे नरक लग असुर कुमारनिका दुःख सो कहां लग कहिये । शरीर दुःख ही का निवास है। पापकर्मका फल क्लेश सदा भोगवना, अर समय समय कर्मकी प्रकृतिनि करि गाडा बंधना, अर निद्राविर्षे बेसुधि होना, आयुके अन्त मरना, एते दुःखनिमें सुख मानना सो बड़ा अचिरज है । तातै इनि दुःखनितें उदास होय सुखका मूल को जगत तैं उदासीनता सोई अंगीकार करि । ___ आगे कहै हैं कि जा शरीर सू एकता मानि अनुराग करै है सो कैसा है यह दिखावै हैं : शार्दूलछन्द अस्थिस्थूल तुलाकलापघटितं नद्धं शिरास्नायुभिश्चर्माच्छादितमस्रसान्द्रपिशितैर्लिप्तं सुगुप्तं खलैः। कर्मारातिभिरायुरुद्घनिगलालग्नं शरीरालयं कारागारमवैहि ते हतमते प्रीतिं वृथा मा कृथाः ॥१९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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