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________________ ___ आत्मानुशासन - शार्दूल विक्रीडित छन्द - किं मर्माण्यभिनन्न भीकरतरो दुष्कर्मगर्मुद्गणः किं दुःखज्वलनावलीविलसितै लेढि देहश्चिरम् । किं गर्जधमतूरभैरवरवान्नाकर्णयन्निर्णयं येनायं न जहाति मोहविहितां निद्रामभद्रां जनः ॥५७॥ ___ अर्थ-कहा पाप कर्मरूप मुन्दर या जीवके मरम... भेदता संता अत्यंत भयकारी नाहीं? सर्वथा भयकारी ही है अथवा कहा दुःखरूप अग्निकी पंक्तिके प्रज्वलित होनेकरि या देह नाहीं जरै है ? अपितु जरै है । अर कहा गाजता जो यम ताकै वादित्रनिके भयंकर शब्द यह नाहीं सुनै है ? सदा ही सुनै है। कौन कारण यह भौंदूजन अकल्याणरूप जो मोहजनित निद्रा ताहि नाँही तजै है ? ___ भावार्थ-जो महा निद्राके वशि होय सोऊ एते कारण पाय जाग्रत होय हैं जो कोऊ मुद्गरकी चोट मरमकी ठौर दे तो निद्रा जाती रहे अथवा अग्निका आतप देहकू लागै तो निद्रा जाती रहे । तथा वादित्रनिके नाद सुनै तौ निद्रा जाती रहै। सो ये अविवेकी जन पापकर्मके उदयरूप मद्गरनिकरि मरमकी ठौर मारिये है अर दुखरूप अग्निकरि याका देह जरै है अर आजि यह मूवा, आजि यह मूवा ए शब्द यमके वादित्रनिके नाद सोऊ निरंतर सुनै है, तोऊ यह अकल्याणकारिणी मोहनिद्रा नाहीं तजै सो बड़ा अचिरज है। ___ आगै कहै हैं कि मोहजनित निद्राके वश” यह जीव दुःखरूप असार संसारविर्षे रति करै है शार्दूल विक्रीडित छन्द तादात्म्यं तनुभिः सदानुभवनं पाकस्य दुष्कर्मणो व्यापारः समयं प्रति प्रकृतिभिर्गाढं स्वयं बन्धनम् । निद्रा विश्रमणं मृतेः प्रतिभयं शश्वन्मृतिश्च ध्रवं जन्मिन् ! जन्मनि ते तथापि रमसे तत्रैव चित्रं महत् ॥५८॥ अर्थ हे जन्ममरणके धरनहारे संसारी जीव ! तेरे या संसारविर्षे निश्चय सेती एते दुःख हैं तौह संसार ही विषै अनुराग करै है सो यह बड़ा अचिरज है। कौन कौन दुःख हैं सौ चितारि । प्रथम तो महा क्लेशका कारण तेरा शरीर तासू तेरा सम्बन्ध है। सदा देहसू देहांतर गमन करै Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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