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________________ मोहाग्नि की अतिशयता अनेक पापरूप उपायकरि व्याकुल होय है, जैसें जलके समीप विषम जो कीच ता विर्षं फँस्या दुर्बल, बूढ़ा बलध कष्ट भोगवै है। कैसे है ए इंद्रिय, उग्र जो ग्रीष्म ऋतु ता विर्षे तीव्र जो सूर्य ताकी तप्तायमान जे किरण तिनि समान आतपकारी है। ___ भावार्थ-जैसी तृष्णाकी बढ़ावनहारी ग्रीष्मके सूर्यको प्रज्ज्वलित किरण तैसी प्रज्ज्वलित ए इंद्रिय तिनिकरि बढ़ी है तृष्णा जाकै ऐसा यह अविवेकी प्राणी सो मनबांछित वस्तुनिः न पाय व्याकुल होय है। जैसे बूढ़ा, दुर्बल बलध तृषातुर जलकै अथि सरोवरादिके तीर गया सो जल तक तौ न पहुंच्या अर बीचि ही कीचमैं फँस्या क्लेश भौगवे है तैसै विषय के अर्थि उद्यम करि मनवांछित विषयनि. न पाय क्लेशरूप होय है । विषयतृष्णा महाक्लेशकारी है । यह तृष्णा ज्ञानामृत ही तैं उपसमैं। __ आगै कोऊ प्रश्न करै है कि जिनक मनवांछित विषयनिकी प्राप्ति नाहीं ते तौ क्लेष भोगते कहे सो प्रमाण, परंतु जे इंद्र चक्रवर्त्यादिक तिनकै तो विषय पूर्ण हैं सो क्लेशनिकी शांतता होयगी। या भाँति प्रश्न करै हैं ताहि समझावै हैं। अनुष्टप्छंद लब्धेन्धनोज्वलत्यग्निः प्रशाम्यति निरन्धनः ज्वलत्युभयथाप्युच्चैरहो मोहाग्निरुत्कटः ।।५६।। अर्थ-अहो भव्य जीव हो ! अग्नि है सो इंधनके योग” प्रज्ज्वलित होय है, अर इंधनके वियोग” बुझि जाय है । अर यह मोहरूप अग्नि अतिप्रबल है । परिग्रहरूपी इंधनके योगरौं तृष्णारूप होय है । अर परिग्रहकी अप्राप्तितें व्याकुलतारूप होइ प्रज्वल है। यह दोऊ प्रकार प्रज्वलित है । तातै मोहाग्नि समान और अग्नि नाहीं। भावार्थ-और अग्नि तो इंधनके योगतै प्रज्ज्वलित होय और ईंधनके वियोग” बुझि जाय । अर यह मोहाग्नि परिग्रहकै बढ़ते तो तृष्णारूप होय अर परिग्रहके घटते व्याकुलतारूप होय । जब असाताके योग” कछ न मिलै तब दुखी होय । अर साताके योग” कछू मिलै तब तृष्णा बढ़ती जाय सौ सूहजार, हजारसं लाख या भाँति अधिक बढ़ती जाय, संतोष बिना सुख नाहीं । तातै दोऊ प्रकार मोहाग्नि दाहक ही है। कोई विवेकी जीव शांतभावरूप जलकर याहि उपसमावै तब सुखी होय । ___आगै कहै हैं कि विषय सुखके साधक जे स्त्री आदि पदार्थ तिनिविर्षे प्रवृति प्राणीनिकै मोहके माहात्म्यतें है सो मोहकू निद्रारूप वर्णन करै हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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