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________________ ८२ सारसमुच्चय कषायका उदय होता है कि उसकी रुचि सांसारिक सुखोंसे नहीं हटती है । वह इन्द्रियसुखका ही प्रेमी होता है । फिर यह कैसे संभव हो सकता है कि वह अभव्य जीव संसारके नाशमें प्रेम करे, पाँच इन्द्रियोंको रोक ले तथा क्रोधादि कषायोंके जीतनेका उद्यम कर सके ? यद्यपि भव्यकी पहचान सर्वज्ञके ज्ञानगोचर है, तथापि जिसकी कुछ भी प्रीति धर्मसे हो और संसारसे कुछ वैराग्य हो तब अपनेको भय जानकर इन्द्रिय- कषायोंके विजयका यत्न करते ही रहना चाहिए । एतदेव परं ब्रह्म न विन्दन्तीह मोहिनः । यदेतच्चित्तनैर्मल्यं रागद्वेषादिवर्जितम् ॥१६४॥ अन्वयार्थ - ( यत् एतत् ) जो यह ( रागद्वेषादिवर्जितम् ) रागद्वेषादि रहित (चित्तनैर्मल्यं) चित्तकी निर्मलता है ( एतत् एव परं ब्रह्म) यह ही परब्रह्मका स्वरूप है ( इह मोहिनः न विन्दन्ति ) परन्तु संसारके मोही जीव इस बातको नहीं अनुभव करते हैं, अतः संसारमें उनका भ्रमण होता है । भावार्थ- स्वयं आत्मा ही परमात्मा या ब्रह्मस्वरूप है, मोहनीय कर्मके उदयसे इसमें रागद्वेष मोह विकार हो रहे हैं । यदि उनको हटा दिया जावे तो भावोंमें वीतरागता झलक जावे । वीतरागता वह निर्मलता है जिससे परब्रह्मका दर्शन होता है । जैसे पवनके क्षोभसे रहित निर्मल समुद्रके जलमें पडा हुआ पदार्थ दीखता है, इसी तरह शुद्ध निश्चयनयके द्वारा सर्व जीवमात्रको एकरूप शुद्ध देखना चाहिए । इसी अभ्याससे रागद्वेष मिटेंगे और वीतरागता बढेगी तब आत्मध्यान सहजमें सिद्ध होगा और वह सर्व कर्म काटकर परमात्मा हो जायेगा । तथानुष्ठेयमेतद्धि पण्डितेन हितैषिणा । यथा न विक्रियां याति मनोऽत्यर्थं विपत्स्वपि ॥१६५॥ अन्वयार्थ- (हितैषिणा पण्डितेन) आत्महित वांछक पंडितका कर्तव्य है कि ( विपत्स्वपि ) विपत्तियोंके पडनेपर भी ( यथा मनः अत्यर्थं विक्रियां न याति ) जिस तरह मनमें अत्यधिक विकार उत्पन्न न हो ( तथा एतत् हि अनुष्ठेयम्) उस तरह ही आचरण करना चाहिए । भावार्थ-भेदविज्ञानी विवेकी एवं आत्महितैषी विद्वानको उचित है कि वह अपने मनका ऐसा साधन करे कि उसमें रागद्वेषका विकार पैदा न हो । शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, निन्दा - प्रशंसामें समभाव रखे । यदि उपसर्ग पड़े, संकट आ जावे, अपने प्राणोंका घात भी होता हो तो भी मनमें क्रोध या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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