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वैराग्यकी आवश्यकता
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द्वेषभाव पैदा न होने दें । सर्व अच्छी या बुरी अवस्थाओंका कारण अपना ही बाँधा हुआ पुण्य व पापकर्मका उदय है, अन्य तो मात्र निमित्त कारण हैं, ऐसा जानकर सर्व अवस्थाओंमें समभाव रखना चाहिए | जितनीजितनी सहनशीलता बढ़ती जायेगी उतना उतना मन दृढ़ व क्षमाशील बनता जायेगा । शुद्धात्माके मननका अभ्यास प्राणीको क्षमावान बनाता है । मोक्षमार्गी साधु ऐसी ही उत्तम क्षमाका पालन करते हैं ।
धन्यास्ते मानवा लोके ये च प्राप्यापदां पराम् । विकृतिं नैव गच्छन्ति यतस्ते साधुमानसाः ॥१६६॥
अन्वयार्थ - (ये च ) जो कोई (परां आपदां प्राप्य) कठिन भारी आपत्तिको पा करके (विकृतिं नैव गच्छन्ति) अपने भावोंमें विकार नहीं आने देते, (ते मानवा लोके धन्याः) वे मानव इस लोकमें धन्य हैं ( यतः ते साधुमानसाः) क्योंकि उनका मन साधुवृत्तिमें आ गया है।
भावार्थ - मनको साधनेसे, बारबार वीतरागताका अनुभव करनेसे वही आदत पड़ जाती है जिसमें मन क्षमाशील बना रहे । वास्तवमें वे संत पुरुष धन्यवादके योग्य हैं, परम प्रशंसनीय हैं जो तीव्र संकटोंके पड़नेपर भी कर्मो दयका विचारकर समभाव रखते हैं । मोक्षार्थीको प्रयत्न करके भाव अहिंसाका भले प्रकार अभ्यास करना योग्य है ।
संक्लेशो न हि कर्तव्यः संक्लेशो बन्धकारणं । संक्लेशपरिणामेन जीवो दुःखस्य भाजनम् ॥१६७॥
अन्वयार्थ - (संक्लेशः न हि कर्तव्यः ) संक्लेशभाव नहीं करना चाहिए, ( संक्लेशः बन्धकारणं) संक्लेशभाव कर्मबंधका कारण है, ( संक्लेशपरिणामेन) संक्लेशभावसे (जीवः) यह जीव (दुःखस्य भाजनम्) दुःखोंका पात्र होता है।
भावार्थ - दुःखित परिणाम या आर्तध्यान करना उचित नहीं है । इन भावोंसे कुछ लाभ नहीं होता है । वर्तमानमें मानसिक दुःख होता है । शरीरका रुधिर सूखनेसे शरीर निर्बल होता है । लौकिक कार्योंमें उपयोग नहीं लगता है । असातावेदनीय आदि अशुभ- प्रकृतियोंका बन्ध होता है, जिससे परलोकमें भी दुःखोंको भोगना पडता है । दुःखोंके कारणोंके होनेपर अपने ही किये हुए पापकर्मोंको याद करना चाहिए, जिनके उदयसे दुःख हुआ है । इस दुःखको संतोषपूर्वक भोग लेना चाहिए, तब पिछला कर्म झड़ जायेगा, नवीन बन्ध न होगा और यदि होगा भी तो वह अत्यल्प ( बहुत थोडा ) होगा ।
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