SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारसमुच्चय संक्लेशपरिणामेन जीवः प्राप्नोति भूरिशः। सुमहत् कर्मसम्बन्धं भवकोटिषु दुःखदम् ॥१६८॥ अन्वयार्थ-(संक्लेशपरिणामेन) संक्लेशभावसे (जीवः) यह जीव (भवकोटिषु दुःखदम्) करोडों जन्मोंमें दुःख देनेवाले (सुमहत् कर्मसम्बन्धं) बहुत अधिक कर्मके बन्धको (भूरिशः) बहुत बार (प्राप्नोति) प्राप्त करता है। ___भावार्थ-जब परिणाम दुःखित होते हैं तब बड़े अशुभभाव उस समय तीव्र कर्मका बन्ध कर देते हैं, उन कर्मोंके उदयसे जब फिर दुःख होता है तब फिर संक्लेशभाव करता है फिर भी तीव्र कर्मबन्ध करता है । इस तरह कर्मबन्धकी शृंखला और दुःख भोगनेकी शृंखला करोडों जन्मोंतक चली जाती है। बिना सम्यग्दर्शनके लाभके इन भावोंका छूटना कठिन है। मिथ्यादृष्टि विषयातुर होता हुआ अधिकतर संक्लेशभाव करता रहता है। उसके परिणाम अशुभ रहते हैं। जब वह कदाचित् कोई पुण्यका काम भी करता है तब भी उसकी भावना निदान-आर्तध्यानकी रहती है। जीवोंके तीन प्रकारके भाव होते हैं-संक्लेशभाव, विशुद्धभाव और शुद्धभाव । संक्लेशभावोंको अशुभभाव कहते हैं जिससे पापका बन्ध होता है। विशुद्धभावको शुभभाव कहते हैं जिससे पुण्यबन्ध होता है। शुद्धभाव कर्मोंके नाशक हैं । ज्ञानी जीवको संक्लेशभावोंसे अपनेको बचाना चाहिए। चित्तरत्नमसंक्लिष्टं महतामुत्तमं धनम् । येन सम्प्राप्यते स्थानं जरामरणवर्जितम् ॥१६९॥ अन्वयार्थ-(असंक्लिष्टं चित्तरत्न) संक्लेशरहित शांतचित्त (महतां उत्तमं धनं) महान पुरुषोंका उत्तम धन है (येन) जिसके द्वारा (जरामरणवर्जितम् स्थान) जरा-मरणसे रहित स्थान (सम्प्राप्यते) प्राप्त होता है। __ भावार्थ-जिन महान पुरुषोंने संक्लेशभावको त्यागकर शांत-भाव रखनेका अभ्यास किया है, जो दुःखमें व सुखमें समताभाव रखते हैं उनके कर्मोंकी निर्जरा अधिक होती है, नवीन कर्मबंध बहुत थोडा होता है, जिनका फल यह होता है कि वह सर्व कर्मबंधसे छूटकर जन्मजरामरणरहित अविनाशी मोक्षपदको प्राप्त कर लेता है। समताभाव वर्तमानमें भी सुख देता है और उससे आगामी कालमें भी सुख होता है । सम्पत्तौ विस्मिता नैव विपत्तौ नैव दुःखिताः। महतां लक्षणं ह्येतन्न तु द्रव्यसमागमः ॥१७०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy