________________
वैराग्यकी आवश्यकता
८५
अन्वयार्थ - (एतत् हि) यह ही ( महतां लक्षणं) महान पुरुषोंका लक्षण है कि वे ( सम्पत्तौ ) धनसम्पदा होने पर ( विस्मिता नैव) कभी भी घमंड नहीं करते हैं, (विपत्तौ ) आपत्ति में संकट पडनेपर (नैव दुःखिताः ) कभी दुःखित नहीं होते हैं । (द्रव्यसमागमः न तु ) केवल धनका लाभ महान पुरुषोंका लक्षण नहीं है ।
भावार्थ-बड़े आदमी उनको नहीं कहना चाहिए जो मात्र धनके स्वामी हैं । वे ही जगतमें माननीय महान प्राणी हैं जिनका आत्मा उदार है, जो संपत्ति - विपत्ति समभाव रखते हैं, धनादि परिग्रहकी वृद्धि होनेपर न तो वे घमंड करते हैं, न कोई आश्चर्य करते हैं । ये धनादि पुण्यकर्मरूपी वृक्षके फल हैं। पुण्यकर्मका उदय सदा एकसा नहीं रहता है । धनादिका समागम क्षणिक है । इसी तरह यदि तीव्र दु:ख आ जाते हैं तब आकुलित नहीं होते
1
। तब भी यह ही विचार करते हैं कि यह पापकर्मोंका उदय है । जिन पापकर्मोंको मैंने बाँधा था, अपनी करणीका फल मुझे समभावसे भोग लेना चाहिए; तथा ये पाप और इनका उदय भी क्षणिक है - सदा रहनेवाला नहीं है । संक्लेशभाव करनेपर भी दुःखोंसे छुटकारा नहीं होगा। ऐसा जानकर महान पुरुष सम्पत्ति व विपत्तिमें समभाव या शांतभाव रखते हैं जिससे वे इस लोकमें भी सुखी रहते हैं व परलोकमें भी सुखके भाजन होते हैं, उनको पुण्यकर्मका बन्ध होता है । वे ही महान पुरुष हैं जो समभाव या शांतभावके स्वामी हैं । मात्र धनवान लोग महान नहीं कहे जा सकते ।
आपत्सु सम्पतन्तीषु पूर्वकर्मनियोगतः । शौर्यमेव परं त्राणं न युक्तमनुशोचनम् ॥१७१॥
अन्वयार्थ-(पूर्वकर्मनियोगतः) पूर्वकर्मोंके उदयसे ( आपत्सु सम्पतन्तीषु ) आपत्तियोंके आ जानेपर ( शौर्यं एव परं त्राणं) दृढता ही परम रक्षक है ( अनुशोचनम् युक्तं न ) बारबार शोच करना उचित नहीं है ।
भावार्थ- जैसे मेरुपर्वत प्रलयकालकी पवन चलनेपर भी अपनी दृढताको नहीं त्यागता है, दृढ रहनेसे उन पवनके आक्रमणोंको जीत लेता है, वैसे ही महान पुरुष अपने ही बाँधे हुए पापकर्मके उदयसे प्राप्त आपत्तियोंके पडने पर अपने मनको दृढ, साहसी व वीर-भावयुक्त रखते हैं, जिससे वे संकटोंको वीरतासे सह लेते हैं । वे बारबार शोच करके दुःखित परिणाम नहीं करते हैं । यह क्षमाभाव या सहनशीलभाव उनके जीवनको साहसी बनाता है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org