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________________ वैराग्यकी आवश्यकता अन्वयार्थ-(ज्ञानविदा) ज्ञानीको (यथा च चेतः सुनिर्मलाम् सम्यक् शुद्धिं जायते) जिस प्रकार यह मन निर्मल हो जावे और भले प्रकार आत्माकी शुद्धि हो जावे (तथा भूरिणा प्रयत्नेन अपि कार्य) उसी प्रकार बहुत प्रयत्न करके भी आचरण करना चाहिए। भावार्थ-जो आत्माका सच्चा हित करना चाहें उन ज्ञानियोंको उचित है कि अपने मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति इस तरहकी रखें जिससे मनसे विषयलम्पटताका मैल निकल जावे । इस स्वप्नसम संसारसे वैराग्य हो जावे, आत्माके ध्यानका तथा आत्मोद्धारका ऐसा प्रेम हो जावे जिससे आत्माका कर्म-मैल कटे और यह शुद्धिके मार्गपर आरूढ होता हुआ चला जावे । मानव-जन्मका यही सार है कि इस आत्माको संसारकी पराधीनतासे बचाकर स्वाधीन किया जावे । विषयोंकी लम्पटता अनेक अनर्थों में पटकनेवाली है । गृहस्थ भी धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थोंका साधन नहीं कर सकता है । गृहत्यागीके साधनमें तो विषयलम्पटता वैरीपनका काम करती है । विशुद्धं मानसं यस्य रागादिमलवर्जितम् । संसाराग्र्यं फलं तस्य सकलं समुपस्थितम् ॥१६२॥ अन्वयार्थ-(यस्य) जिसका (मानसं) मन (रागादिमलवर्जितम्) रागादि मैलसे रहित (विशुद्धं) शुद्ध है (तस्य) उसीको (संसाराग्र्यं फलं) इस जगतका मुख्य फल (सकलं) सकल रूपसे (समुपस्थितं) प्राप्त हुआ है। __ भावार्थ-इस जगतमें उसी मानवका जीवन सफल है जो अपने मनको रागादि भावोंसे दूर रखके आत्माके स्वभावके चितवनसे उसे शुद्ध करता है तथा वीतराग व समभावरूप परिणामोंसे अपनेको जोड़ता है। क्योंकि सरागता कर्मबन्ध करने वाली है, वीतरागता कर्मबन्धका क्षय करनेवाली है। मोक्षका यथार्थ यत्न करना ही इस संसारमें जन्म लेनेका मुख्य फल है । ज्ञानीको निरंतर समभाव रखकर शुद्धात्म-चिन्तवन करना योग्य है। संसारध्वंसने हीष्टं धृतिमिन्द्रियनिग्रहे । कषायविजये यत्नं नाभव्यो लब्धुमर्हति ॥१६३॥ अन्वयार्थ-(अभव्यः) अभव्य जीव (संसारध्वंसने हीष्टं) संसारके नाशमें प्रेम, (इन्द्रियनिग्रहे धृति) इन्द्रियोंके जीतनेमें धैर्य, (कषायविजये यत्न) कषायोंके विजयमें यत्न (हि लब्धं न अर्हति) निश्चयसे नहीं कर सकता है-उसके योग्यताका अभाव है। भावार्थ-अभव्य जीवके इतना तीव्र मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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