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________________ ७६ सारसमुच्चय शरीरको कब निगल डालेगी। जिन-जिन स्त्री, पुत्र, मित्रादिके संयोगसे हम बड़े राजी होते हैं और अपनेको बहु कुटुम्बी समझते हैं, वे देखते-देखते ही नष्ट हो जाते हैं तब ही ऐसा भान होता है कि मानों स्वप्नमें ही स्त्रीपुत्रादिको देखा हो । किसीसे स्नेह हो वह जरासी देरमें नष्ट हो जाता है। उसकी इच्छानुसार कार्य न करनेसे ही वह वैरी हो जाता है। जैसे-संध्यासमयकी लाली अवश्य विनष्ट हो जाती है । तिनकेके ऊपर रखी हुई बिंदुके गिर जानेका सदा ही खटका बना रहता है वैसे ही इस शरीरके गिर पडनेका या रोगी हो जानेका सदा ही डर लगा रहता है। शक्रचापसमा भोगाः सम्पदो जलदोपमाः । यौवनं जलरेखेव सर्वमेतदशाश्वतम् ॥१५१॥ अन्वयार्थ-(भोगाः शक्रचापसमाः) इन्द्रियोंके भोगने योग्य पदार्थ इन्द्रधनुषके समान देखते-देखते नष्ट हो जाते हैं । (जलदोपमाः सम्पदः) सम्पत्तियाँ मेघोंके विघटनके समान नष्ट हो जाती हैं। (जलरेखा इव यौवनं) पानीमें खींची हुई रेखा जैसे तुरन्त मिट जाती है वैसे ही यौवन शीघ्र मिट जाता है । (एतत् सर्वे अशाश्वतम्) यह सब सदा रहनेवाला नहीं है, संसारकी माया नाशवन्त है । भावार्थ-अज्ञानी प्राणी जिन-जिन पदार्थों को स्थिर मानकर निश्चिन्त होकर धर्मसाधनसे विमुख रहता है वे सब पदार्थ बिलकुल नाशवंत हैं। भोग इन्द्रधनुषके समान हैं, सम्पत्तियाँ मेघके समान हैं, यौवन जलकी रेखावत् क्षणिक है, ऐसा जानकर बुद्धिमान प्राणीको उचित है कि वह भोगोंमें लिप्त न हो, सम्पत्ति पाकर उन्मत्त न हो, यौवनका गर्व न करे, किंतु इन सबको नाशवंत जानकर अपने कल्याणमें कुछ भी प्रमाद न करे-निरन्तर धर्मसाधन करके आत्माका हित करे। समानवयसा दृष्ट्वा मृत्युना स्ववशीकृताः । कथं चेतः समो नास्ति मनागपि हितात्मनः॥१५२॥* १. श्लोक १५२ को ऊपर ज्यौंका त्यौं रखकर हमने इसका अर्थ और पाठ इस प्रकार विचारा है : समानवयसा दृष्ट्वा मृत्युना स्ववशीकृताः । कथन्न चेत् समो नास्ति मनागपि हितात्मनः ।।१५२।। अन्वयार्थ-(समानवयसा दृष्ट्वा) समान वयवाले देखकर (मृत्युना स्ववशी-कृताः) मृत्युके द्वारा सभीको अपने वश कर लिया गया हैं अतः अब (आत्मनः हित समो) आत्माके हित समान (मनागपि नास्ति) कुछ भी नहीं है ऐसा (कथं न चेत्) क्यों नहीं समझता ? भावार्थ-मानो जीवोंके जीवनकी और अपनी वय समान देखकर मृत्युने सबको अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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