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________________ वैराग्यकी आवश्यकता ७७ अर्थ-(यह श्लोक अशुद्ध मालूम होता है) अतएव इसका भावार्थ मात्र लिखा जाता है । मरणने सबको समान देखकर अपने वश कर लिया है, अर्थात् मरणके सामने कोई छोटा-बड़ा नहीं है । बालक, युवा, वृद्ध सर्व ही मरणके आधीन हैं। मरनेका कोई निश्चय नहीं है। अतएव अपने आत्माके हितमें मन नहीं लगता है यही आश्चर्यकी बात है। जब मरणका निश्चय नहीं है तब आत्माके हितमें कुछ भी ढील न करनी चाहिए । सर्वाशुचिमये काये नश्वरे व्याधिपीडिते । को हि विद्वान् रतिं गच्छेद्यस्यास्ति श्रुतसङ्गमः ॥१५३॥ अन्वयार्थ-(यस्य श्रुतसंगमः अस्ति) जिस किसीको शास्त्र-ज्ञानका समागम है (कः हि विद्वान्) ऐसा कौन विद्वान (व्याधिपीडिते) रोगसे पीडित, (सर्व अशुचिमये) सर्व तरह अपवित्र (नश्वरे) एवं नाशवंत (काये) शरीरमें (रतिं गच्छेत्) आसक्त होगा? भावार्थ-शास्त्रोंको पढकर जिसने शरीर और आत्माका ठीक ठीक स्वरूप जाना है और तत्त्वोंका मनन किया है वह विद्वान भूलकर भी इस नाशवंत अपवित्र एवं रोगोंसे पीड़ित शरीरमें रति न करेगा। वह इस शरीरके बंधनसे छूटना ही चाहेगा । अतएव अपने आत्माके हितमें जरा भी प्रमाद नहीं करेगा । विद्वान वही है जो विचारपूर्वक कार्य करता है । चिरं सुपोषितः कायो भोजनाच्छादनादिभिः । विकृतिं याति सोऽप्यन्ते कास्था बाह्येषु वस्तुषु ॥१५४॥ अन्वयार्थ-(भोजनाच्छादनादिभिः) भोजनवस्त्रादिसे (चिरं सुपोषितः) चिरकाल तक भले प्रकार पालन की हुई (कायः) यह काय रक्खी जाती है (सः अपि) ऐसी यह काय भी (अन्ते) अन्तमें या मरणके समय (विकृतिं याति) विकारको प्राप्त हो जाती है, बिगड जाती है, अपने वश नहीं रहती है । (बाह्येषु वस्तुषु) बाहरी पदार्थोंमें तब (का) क्या (आस्था) विश्वास किया जावे ? ___ भावार्थ-स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, मकान, नौकर, वस्त्रादि, रुपया, पैसा आदि पदार्थ बिलकुल अपनेसे भिन्न हैं तथापि उनका सम्बन्ध इस शरीरसे ही है। जिस शरीरके साथ आत्मा दिन-रात रहता है तथा जिसे वशमें कर लिया है, संसारके सभी जीवोंको घेर लिया है । मृत्यु जीवनके साथ चिपक कर चलती है, इस प्रकार जीवन और मृत्युकी वय समान है । जीवनके साथ मरण लगा हुआ है । ऐसा जानकर हे जीव ! मृत्युसे छूटनेका उपाय केवल आत्माका कल्याण कर लेना है। उसमें किञ्चित् भी प्रमाद करना योग्य नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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