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________________ वैराग्यकी आवश्यकता ७५ बारबार धारण किये और छोडे हैं । कभी कहीं दुख, कभी कहीं सुख पाया है । दुःख भी कोई बचा नहीं जो न पाया हो, सुख भी कोई बचा नहीं जो न पाया हो । दुःखोंसे आकुलित रहा । सुखमें, उन्मत्त हुआ परन्तु तृप्ति रंचमात्र भी प्राप्त नहीं हुई । तृष्णारूपी रोग बढता ही गया । वैराग्यकी आवश्यकता एवं विधमिदं कष्टं ज्ञात्वात्यन्तविनश्वरम् । कथं न यासि वैराग्यं धिगस्तु तव जीवितम् ॥१४९॥ अन्वयार्थ-(एवं विधं) इस तरह चारों गतियोंमें (इदं कष्टं) इस भ्रमणके कष्टको (अत्यन्तविनश्वरम्) अत्यन्त विनाशीक (ज्ञात्वा) जानकर (कथं वैराग्यं न यासि) क्यों वैराग्यको नहीं प्राप्त होते हो ? (तव जीवितम् धिक् अस्तु) तेरे इस जीवनको धिक्कार हो! __ भावार्थ-वह जीवन धिक्कारने योग्य है, जो कष्ट ही कष्टमें बीते । मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्रके वशीभूत होकर इस जीवने जन्ममरणके घोर कष्ट पाये । सर्व प्रकारके दुःख सुख भोगे, परन्तु कभी भी संतोष और सुख-शांतिका लाभ नहीं किया । जीवन असार ही बना रहा । वृथा ही जीवनकी यात्राएँ बीतीं । अपने ही भीतर जो सच्ची सुख-शांति भरी है, उसको प्राप्त नहीं किया। कर्मोंकी पराधीनतामें दुःख ही दुःख भोगे । जिन असार सुखोंको बारबार परीक्षा करके देख लिया गया कि यह उपाय इच्छाओंके रोगोंके शमनका नहीं है, फिर भी यह मूर्ख इन निरर्थक उपायोंसे वैराग्यभाव नहीं रखता और सच्चे सुखका उपाय नहीं करता है, जो अपने ही पास है। जीवितं विद्युता तुल्यं संयोगाः स्वप्नसन्निभाः । सन्ध्यारागसमः स्नेहः शरीरं तृणबिन्दुवत् ॥१५०॥ अन्वयार्थ-(जीवितं विद्युता तुल्यं) यह जीवन तो बिजलीके चमकारके समान क्षणभंगुर है, (संयोगाः) और स्त्री, पुत्र, कुटुम्बादिका संयोग (स्वप्नसन्निभाः) स्वप्नके समान है, (संध्यारागसमः स्नेहः) जगतके प्राणियोंके साथ स्नेह संध्याकी लालीके समान है, (तृणबिन्दुवत् शरीरं) और तिनके पर पड़ी हुई ओसकी बिन्दुके समान शरीर पतनशील है। भावार्थ-यह मूढ प्राणी जिन-जिन पदार्थों में मोह करता है वे सब पदार्थ नाशवंत हैं । जीवन मृत्युके मुखमें हैं, यह नहीं मालूम कि मृत्यु इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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