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________________ कामशमनका उपाय ५९ सह ले । काम-सेवन विषफल खानेके समान है। एक फल देखनेमें सुन्दर है, खानेमें मीठा है, परन्तु वह घातक है। उनके खानेकी चाह किसीकी पैदा हो तो उसे उचित है कि उस चाहके कष्टको सह ले परन्तु विषफल कदापि नहीं खावे । जो कुबुद्धि जिह्वाकी लोलुपतासे बिना विचारे विष फल खावेगा वह प्राण गँवायेगा; तथा चाहना कुछ देर पीछे मिट भी जाती है, इसी तरह कामसेवनका भाव भी कुछ देर पीछे मिट जाता है । जो इस दाहके शमनके लिए परस्त्री सेवनादि पाप-कर्मों में प्रवर्तेगा और आत्मधर्मसे विमुख हो जायेगा उसको मिथ्यात्व कर्मके उदयसे करोडों जन्मोंमें जन्म-मरणरोग-शोकादिसे कष्ट भोगने पडेंगे । इसलिए ज्ञानीका कर्तव्य है कि कामकी वेदनाको ज्ञानके द्वारा शमन करे । उसके पीछे पडकर चारित्रभ्रष्ट न हो । कामशमनका उपाय नियतं प्रशमं याति कामदाहः सुदारुणः । ज्ञानोपयोगसामर्थ्याद्विषं मंत्रपदैर्यथा ॥११३॥ अन्वयार्थ-(यथा मंत्रपदैः विष) जैसे मंत्रोंके पदोंके प्रभावसे सर्पका विष उतर जाता है वैसे ही (सुदारुणः कामदाहः) अतितीव्र कामकी दाह भी (ज्ञानोपयोगसामर्थ्यात्) अपने आत्मज्ञानके बलसे (नियतं प्रशमं याति) अवश्य शान्त हो जाती है। भावार्थ-कामकी दाह कितनी भी तीव्र हो उसको मिटानेका नियमसे यही उपाय है कि तत्त्वज्ञानके साथ आत्मतत्त्वका अभ्यास किया जावे तथा मोक्षका, मोक्षके सुखोंका तथा कामकी असारताका बारबार विचार किया जावे । ज्ञानमें बड़ी शक्ति है। ज्ञान क्षणमात्रमें भावोंको पलट देता है। शास्त्रका अभ्यास भी कामकी दाहको मिटा देता है। असेवनमनङ्गस्य शमाय परमं स्मृतम् । सेवनाच परा वृद्धिः शमस्तु न कदाचन ॥११४॥ अन्वयार्थ-(अनङ्गस्य) कामका (असेवन) नहीं सेवना (शमाय) कामभावकी शांतिका (परमं) बड़ा उपाय (स्मृतं) कहा गया है (च) क्योंकि (सेवनात्) कामसेवनसे (परा वृद्धिः) कामभावकी लगातार बढ़ती होती जाती है (तु कदाचन) परन्तु कभी भी (शमः न) उसकी शांति नहीं होती है। भावार्थ-जैसे कहीं पर आग जलती हो उसपर यदि तेल, घी, लकड़ी आदिका ईंधन न डाला जावे तो वह आग थोडी देरमें बुझ जायेगी; परन्तु यदि कोई आगके बुझानेके लिए आगमें लकड़ी आदि डालेगा तो वह आग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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