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________________ ५८ सारसमुच्चय भावार्थ - कामकी चाह मनमें पैदा होती है, उस चाहकी जलनको सह लेना ठीक है । सहनेमें अपना बिगाड नहीं होगा । जैसे कोई गाली दे, सुननेवाला उसको सह ले तब परस्पर कलह व युद्ध होनेका निमित्त नहीं आयेगा । परन्तु यदि नहीं सहे और बदलेमें गाली दे तो परस्पर कलह बढ़ते-बढ़ते मारपीट हो जायेगी। इसी तरह कामकी दाहको सह लेनेसे सहनशीलताकी आदत पडेगी, धीरे-धीरे कामकी दाह शमन हो जायेगी; परन्तु जो कामकी चाहके आधीन शील-खंडन करके स्त्रियोंमें रति करने लगेगा तो उसकी चाहकी दाह अधिक बढ जायेगी व बारबार स्त्री-संभोग करेगा, स्वस्त्री, परस्त्री, वेश्याका विवेक जाता रहेगा । परिणाम तीव्र रागभावसे ऐसे लिप्त हो जायेंगे कि वह मानव नरकायु बाँधकर नरकमें पतन कर घोर दुःख उठाएगा । कामदाहः सदा नैव स्वल्पकालेन शाम्यति । सेवनाच्च महापापं नरकावर्त्तपातनम् ॥ १११॥ अन्वयार्थ—(कामदाहः) कामकी जलन (स्वल्पकालेन ) थोडे कालमें (शाम्यति) मिट जाती है, (सदा नैव ) सदा नहीं रहती । ( सेवनात् च ) परन्तु कामसेवनसे (महापापं ) महान पापका बन्ध होता है, ( नरकावर्त्तपातनम् ) जो पाप नरकके गड्ढे में गिरा देता है । I भावार्थ-वेद नोकषायके तीव्र उदयसे कामकी जलन पैदा होती है वह एक अंतर्मुहूर्तसे अधिक एकसी नहीं रहती है । थोडे कालमें अन्य कार्योंकी तरफ उपयोग लग जानेसे और वेदका उदय मन्द हो जानेसे कामकी दाह मिट जाती है । इसलिए कामकी दाहको मिटने देना ही अच्छा है । यह ठीक नहीं है कि कामकी दाह शान्त करनेको स्त्रीसंभोग किया जावे। इससे तो कामकी दाह और अधिक बढ़ेगी और तीव्र रागभावसे नरकमें जाने योग्य पापका बंध होगा, जहाँ बहुत कष्ट भोगना पड़ेगा । सुतीवेणापि कामेन स्वल्पकालं तु वेदना । खण्डनेन तु शीलस्य भवकोटिषु वेदना ॥ ११२ ॥ अन्वयार्थ - ( सुतीव्रेण कामेन अपि ) अति तीव्र कामकी दाहसे भी (स्वल्पकालं तु) थोडे ही कालतक ( वेदना ) पीड़ा रहती है (तु) परन्तु ( शीलस्य खंडनेन) ब्रह्मचर्यको खंडित कर देनेसे ( भवकोटिषु) करोड़ों जन्मोंमें (वेदना) कष्ट सहने पड़ते हैं । भावार्थ - बुद्धिमान वही है जो अधिक कष्टको बचाकर थोड़ा कष्ट For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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