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________________ ६० सारसमुच्चय और अधिक प्रज्वलित हो जायेगी। इसी तरह कर्मोदयसे उठी हुई कामकी दाह अपने आप थोड़ी देरमें बुझ जायेगी, परन्तु कामके सेवन करनेसे तो लगातार बढ़ती ही जायेगी, कभी भी शांत नहीं होगी। अतएव कामकी वेदनाको ज्ञान वैराग्यकी भावनासे मिटाना योग्य है, परन्तु स्त्री-सेवनादि उपाय करना और अधिक काम रोगको बढ़ा लेना है। उपवासोऽवमौदर्यं रसानां त्यजनं तथा । अस्नानसेवनं चैव ताम्बूलस्य च वर्जनम् ॥११५॥ असेवेच्छानिरोधस्तु निरनुस्मरणं तथा । एते हि निर्जरोपाया मदनस्य महारिपोः॥११६॥ अन्वयार्थ-(उपवासः) खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय चार प्रकारका आहार छोड़कर उपवास करना (अवमौदर्य) भरपेट न खाकर कम खाना (रसानां त्यजनं) दूध, दही, घी, मीठा, तेल, नमक इन छः रसोंका या उनमेसे कुछ रसोका त्यागना और स्वादकी कामनारहित भोजन करना (तथा अस्नानसेवनम्) तथा स्नानविलेपनादि नहीं करना (चैव ताम्बूलस्य च वर्जनम्) तैसे ही पानोंका नहीं खाना (असेवा) काम-भावपूर्वक स्त्रियोंकी सेवा नहीं करना (इच्छानिरोधः) अपनी उठी हुई इच्छाको रोकना (तथा तु निरनुस्मरणं) तथा कामसेवनका बारबार स्मरण नहीं करना (एते हि) ये ही (मदनस्य महारिपोः) कामके महान शत्रु हैं और (निर्जरोपाया) निर्जराके उपाय हैं। भावार्थ-कामभावके जागृत होनेके लिए बाह्य और अन्तरंग दोनों कारण हैं । बाह्य कारण ही अधिकतर अन्तरङ्ग कारणको जागृत कर देता है। काम वेद कषायकी उदीरणासे होता है। कामकी तीव्रता तब ही होती है जब बाह्य निमित्त मिलाया जाये और शरीरको ऐसा भोजन-पान कराया जावे जिससे कामकी वासना प्रबल हो जावे । अतएव इस कामभावको आत्माका बड़ा भारी शत्रु समझकर इसके जीतनेके लिए नीचे लिखे उपाय करे । १. उपवास-महीनेमें चार उपवास करना, धर्मध्यानमें समय लगाना । उपवाससे इन्द्रियमद मिट जाता है, शरीरका विकार शांत हो जाता है। और भी समय-समय पर उपवास करते रहना। कामदेव स्वयं शांत हो जायगा। २. पेटभर कभी नहीं खाना। किन्तु ऊनोदर करना। अल्प भोजनसे भी इन्द्रियाँ वशमें रहती हैं। ३. रसोंको छोड़ते रहना व जीभके चटोरेपनको जीतना, मिष्ट व कामोद्दीपक भोजन व रस न खाना । ४. तैल, उबटन, चंदन, सुगंधादि लगाकर व मल-मलकर स्नान न करना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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