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कामवासनाकी असारता
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भावार्थ- काले नागके डसनेसे जो विष चढ़ता है उससे तो वर्तमान शरीरका ही क्षय होता है परन्तु जिसको कामरूपी सर्प डस लेता है उसको तीव्र रागरूपी ऐसा विष चढ़ता है कि वह भवभवमें शान्त नहीं होता है । विषयोंकी लम्पटताके कारण यह जीव तीव्र कर्म बाँध लेता है । और उनके विपाकसे जन्मजन्ममें भ्रमणकर अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक कष्ट भोगता है । कभी लब्ध्यपर्याप्तक होकर एक श्वासमें अठारहवार जन्मता व मरता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव पांच परिवर्तनोंमें अनंत वार जन्म करानेवाला तीव्र विषयानुराग ही है ।
दुःखानामाकरो यस्तु संसारस्य च वर्धनम् । स एव मदनो नाम नराणां स्मृतिसूदनः ॥ ९६ ॥ अन्वयार्थ - ( यस्तु ) जो मदन ( दुःखानां) दुःखोंकी (आकरः) खान है (च संसारस्य वर्धनम् ) तथा जिससे संसारकी वृद्धि होती है ( स एव) वह ही (मदनः नाम) कामदेव नामका शत्रु है ( नराणां ) और वह मानवोंकी (स्मृतिसूदनः) स्मरणशक्तिको नाश करनेवाला है ।
भावार्थ- कामविकारको मदन कहते हैं । यह अनंत दुःखोंकी खान है। इसके कारणसे इस लोकमें भी जीव दुःखी होता है व परलोकमें भी दुःखी होता है । कामवासनाके कारण धर्मकी वासना अपना दृढ प्रभाव नहीं जमा पाती है। इससे संसारमें भ्रमण बढ़ता ही जाता है तथा कामकी ज्वालासे शरीरका रुधिर सूखता है, वीर्य शक्ति कम होती है, इसीसे स्मरण शक्तिपर भी बुरा असर पड़ता है। यह कामभाव शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सर्वका नाश करनेवाला मदन नामका महान शत्रु है ।
संकल्पाच्च समुद्भूतः कामसर्पोऽतिदारुणः । रागद्वेषद्विजिह्वोऽसौ वशीकर्तुं न शक्यते ॥ ९७ ॥
अन्वयार्थ – (कामसर्पः) कामरूपी साँप ( अतिदारुणः ) अत्यन्त भयानक है (संकल्पात् च समुद्भूतः ) और अन्तरङ्ग विचारसे ही उत्पन्न होता है, (असौ रागद्वेषद्विजिहः 1) इसके रागद्वेषरूपी दो जिह्वा (जीभ) हैं ( वशीकर्तुं न शक्यते) इसका वश करना बहुत कठिन है ।
भावार्थ - तीव्र वेदके उदयसे अन्तरङ्गमें जब कामका वेग उदित होता है तब जीवात्मा अपने स्वरूपसे विचलित हो जाता है, उस समय अज्ञानऔर अविवेक उसकी सहायता करते हैं । यह भयानक इसलिए है कि धर्म,
१. ‘द्विजिह्वः' का अर्थ सर्प भी होता है . श्रीकैलास सागरसूि
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