SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारसमुच्चय अर्थ पुरुषार्थको नाश कर देता है, बुद्धिको विकारी बना देता है । तब इष्ट स्त्री आदि पदार्थों में राग बढ़ जाता है। कामभावकी तृप्तिमें जो पदार्थ बाधक होते हैं उनमें द्वेष बढ़ जाता है। तब जिसका आत्मबल निर्बल है वह मार्गसे गिर जाता है। इसको आधीन रखनेके लिए बहुत बड़े पुरुषार्थकी आवश्यकता है। उसके बिना वह विजित नहीं हो सकता। दुष्टा येयमनङ्गेच्छा सेयं संसारवर्धिनी । दुःखस्योत्पादने शक्ता शक्ता वित्तस्य नाशने ॥९८॥ अन्वयार्थ-(या इयं) जो यह (अनङ्गेछा) कामभावकी इच्छा है (सा दुष्टा) वह दुष्ट है (इयं) और यह (संसारवर्धिनी) संसार बढानेवाली है। (दुःखस्य) दुःखोंके (उत्पादने) पैदा करनेमें (शक्ता) समर्थ है और (वित्तस्य) धनके (नाशने) विनाश करनेमें (शक्ता) भी सक्षम है। ___ भावार्थ-कामभावकी तीव्रता दुष्टके समान व्यवहार करती है। दुष्टका जितना आदर किया जाता है वह उतना ही अपना बुरा करता है। इसी तरह कामभावके अनुसार जितना अधिक वर्तन किया जाता है उतनी ही कामकी पीडा बढती जाती है। इसके आधीन जो मानव हो जाता है उसको इष्टवियोगके व शरीरके रोगिष्ट होनेके दुःख ही दुःख होते हैं। तीव्र कषायकी वृद्धिसे संसारमें भ्रमण करानेवाले कर्मोंका बंध इतना बढ़ता है कि संसारका पार करना उसके लिए कठिन हो जाता है। अहो ते धिषणाहीना ये स्मरस्य वशं गताः । कृत्वा कल्मषमात्मानं पातयन्ति भवार्णवे ॥१९॥ अन्वयार्थ-(अहो) बड़े खेदकी बात है कि (ये) जो कोई (स्मरस्य) कामके (वशं गताः) वश हो जाते हैं (ते) वे (धिषणाहीनाः) बुद्धिहीन हैं. (आत्मानं) अपनेको (कल्मषं) पापी (कृत्वा) बनाकर (भवार्णवे) संसारसागरमें (पातयन्ति) गिरा देते हैं। भावार्थ- मानव जीवनकी सफलता अपने आत्माकी उन्नतिसे है कि जिससे यह आत्मा अशुद्धतासे शुद्धताको प्राप्त कर ले, तब फिर अनेक जन्मोंमें जन्म-मरण न करना पड़े। यह कार्य तब ही हो सकता है जब कामभावको जीतकर बाह्यमें ब्रह्मचर्य पालता हुआ अन्तरंग ब्रह्मचर्यको पाले, ब्रह्मस्वरूप आत्मामें लीन हो आत्मानन्दका भोग करे । जो अज्ञानी कामभोगके आधीन होकर निरन्तर विषयवांछासे और कषाय भावसे आकुलित रहते हैं वे पापकर्मोंका संचय कर लेते हैं और कषायभावसे निगोदमें तथा नरकमें गिरा देते हैं। फिर आत्मोन्नतिके लिए मनुष्यजन्मका उत्तम अवसर पाना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy