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________________ ५० सारसमुच्चय (अत्यर्थं) अतिशयरूप है (दुःखोत्पादनतत्परः) और सांसारिक दुःखोंको उत्पन्न करता ही रहता है (बुधैः) ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। भावार्थ-अन्य सब रोगोंका इलाज है, वे उत्तम पथ्य और औषधिके सेवनसे मिट जाते हैं, लेकिन काम रोग ऐसा भयंकर नाइलाज रोग है कि उसके दूर करनेके लिए कोई बाहरी पदार्थका सेवन कार्यकारी नहीं होता। स्त्रीसेवनसे भी नहीं मिटता है, बढता ही जाता है तथा इसकी तृष्णाके कारण अनन्तानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व कर्मका बन्ध होता है जिससे संसारवास बढता जाता है । कामकी तृष्णा अन्याय करनेके भाव भी जागृत कर देती है। जैसे रावणका मन रामकी स्त्री सीतापर आसक्त हो गया। तब उस प्राणीको नरकतिर्यंचगतिका बंध पडता है; दुर्गतिमें जाकर उसे महान कष्ट प्राप्त होता है। पूर्व संस्कारवश कामकी ज्वाला न मिटनेसे परम्परा दुःखोंकी प्राप्ति चलती ही जाती है। यावदस्य हि कामानिः हृदये प्रज्वलत्यलम् । आस्रवन्ति' हि कर्माणि तावदस्य निरन्तरम् ॥१४॥ अन्वयार्थ-(यावत्) जब तक (अस्य) इस जीवके (हृदये) मनमें (कामानिः) कामकी ज्वाला (अलं प्रज्वलति) तीव्रतासे जलती रहती है (तावत्) तब तक (अस्य) इस जीवके (निरन्तरम्) निरन्तर (कर्माणि आस्रवन्ति हि) आस्रव होता ही रहता है-अर्थात् कर्म आते ही रहते हैं। ___भावार्थ-कामकी ज्वाला बड़ी ही दुःखदायक है। इसके कारण परिणाम कभी रागी, कभी द्वेषी और कभी मोही हो जाते हैं, जिनसे निरन्तर कर्मोंका आस्रव हुआ ही करता है। विषयोंकी तीव्र अभिलाषा, विषयलम्पटता अशुभोपयोग है। इससे पाप-कर्मोंका, असातावेदनीयादिका और मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कषायादिका तीव्रबन्ध होता है, जिससे भवभवमें कष्ट होता है। कामाहिदृढदष्टस्य तीव्रा भवति वेदना । यया सुमोहितो जन्तुः संसारे परिवर्तते ॥१५॥ अन्वयार्थ-(कामाहिदृढदष्टस्य) जिस किसी जीवको कामरूपी नाग डस लेता है उसको (तीव्रवेदना) घोर पीडा (भवति) होती है (यया) जिस तीव्र वेदनासे (सुमोहितः) मूर्छित होता हुआ (जन्तुः) यह प्राणी (संसारे) इस संसारमें (परिवर्त्तते) एक गतिसे दूसरी गतिमें चक्कर लगाया करता है । पाठान्तर-१. आश्रयन्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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