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कामवासनाकी असारता
४९ अन्वयार्थ-(शरीरिणाम्) शरीरधारी प्राणियोंके (शरीराणि) शरीर (स्मराग्निना) कामकी अग्निसे (प्रदग्धानि) जला करते हैं (शमाम्भसा) शांत जलसे (हि) भी (सिक्तानि) सींचे जावें (निवृत्तिं न एव भेजिरे) तो भी शान्त नहीं होते हैं -उनको आराम नहीं मिल पाता।
भावार्थ-कामका उद्वेग जब चढता है, जब किसी स्त्रीके स्नेहके कारण कामकी अग्नि मनमें जल उठती है तब मनके साथ शरीर भी जलने लग जाता है, दीर्घ उष्ण श्वास निकलने लगते हैं। किसी भी तरह चैन नहीं पडती है। उस कामी मानवको कितने भी शीतल जलसे स्नान कराया जावे तो भी कामकी जलन नहीं मिटती है। कामकी दाहके मिटानेका उपाय कामभोग भी नहीं है । मात्र ज्ञानवैराग्य सहित आत्मानंदका भोग है, अतः ज्ञानवैराग्यके साथ इच्छाशक्तिका दमन करना आवश्यक है, उससे इन्द्रियसुखोंसे अरुचि हो जाती है, उसी समय विवेक जागृत होता है और तब आत्माकी ओर दृष्टि जाती है । जब अतीन्द्रिय आनंदका गहरा स्वाद आने लगता है तब कामभावका सहज ही शमन हो जाता है ।
अमिना तु प्रदग्धानां शमोस्तीति यतोऽत्र वै ।
स्मरवह्निप्रदग्धानां शमो नास्ति भवेष्वपि ॥१२॥ अन्वयार्थ-(यतः) क्योंकि (अत्र वै) इस लोकमें (अग्निना प्रदग्धानां) आगसे जलनेवालोंकी (तु शमः अस्ति इति) तो शान्ति हो ही जाती है परन्तु (स्मरवह्निप्रदग्धानां) जो कामवासनाकी आगसे जलते रहते हैं उनकी (शमः) शान्ति (भवेषु अपि) भवभवमें भी (नास्ति) नहीं होती।
भावार्थ-आगको शांत करनेका उपाय जल है। यदि कोई मानव आगसे जल रहा हो उसको यदि जलसे नहला दिया जावे तो वह तुर्त शीतल हो जायेगा, इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु जिसके मनमें कामकी ज्वाला धधकती है वह अनन्त जन्मोंमे भी शांत नहीं होती, चाहे कामभोग किया जावे या न किया जावे, क्योंकि कामभोग करनेसे और भी कामकी तृष्णा बढ़ जाती है। इसलिए इस भयंकर आगको शान्त करनेका उपाय सम्यग्ज्ञान और वैराग्यका रुचिपूर्वक सेवन है, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
मदनोऽस्ति महाव्याधि?श्चिकित्स्यः सदा बुधैः ।
संसारवर्धनेऽत्यर्थं दुःखोत्पादनतत्परः॥९३॥ अन्वयार्थ-(मदनः) कामवेदना (महाव्याधिः) बड़ा भारी रोग है (सदा) सदा ही (दुश्चिकित्स्यः) इसका इलाज कठिन है (संसारवर्धने) संसारको बढानेमें
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