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________________ ३८ सारसमुच्चय सांसारिक सुखोंका निमित्त मूल कारण पुण्यकर्मोंका उदय है। इसलिए पाप क्षय करनेकी व पुण्यको संचय करनेकी आवश्यकता है। यह तब ही हो सकता है जब शुद्धोपयोगसे प्रेमयुक्त होकर जिनेन्द्रकथित रत्नत्रय धर्मको यथार्थपनेसे आचरण किया जावे । जो अविरत सम्यक्त्वी भी होते हैं वे भी दुर्गतिके दुःखोंसे बचेंगे और जब तक मोक्ष न होगा, तब तक साताकारी संयोगोंको प्राप्त करेंगे । अतएव धर्मके आचरणमें प्रमाद करना उचित नहीं है । विशुद्धादेव संकल्पात्समं सद्भिरुपाय॑ते । स्वल्पेनैव प्रयासेन चित्रमेतदहो परम् ॥७१॥ अन्वयार्थ-(अहो एतत् परम् चित्रं) यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि (स्वल्पेन एव प्रयासेन) थोड़े ही प्रयत्नसे (विशुद्धात् संकल्पात् एव) शुद्ध भावोंके द्वारा और (सद्भिः) संत पुरुषोंके द्वारा (सम) समभाव (उपाय॑ते) प्राप्त कर लिया जाता है । ___भावार्थ-परिणामोंकी विचित्र गति है। परिणामोंको पलटनेका निमित्त मिलानेसे परिणाम अशुभ व शुभसे पलटकर शुद्धोपयोगमें पहुंच जाते हैं। जहाँ शुद्धोपयोग है वहाँ समभाव है। समभाव परम धर्म है। यही परम कल्याणकारी है। सामायिक, अध्यात्म शास्त्रका मनन, भक्ति आदि निमित्तोंके द्वारा वीतराग भाव जागृत हो जाता है अथवा व्यवहार नयको गौणकर जब शुद्ध निश्चयनयके द्वारा मनन किया जाता है तब सर्व जीव मात्र पर समभाव जागृत हो जाता है। परिणामोंको शुद्धोपयोगमें ले जानेके लिए सम्यग्दर्शनकी जरूरत श्रद्धान चारित्रका प्रेरक होता है। धर्म एव सदा त्राता जीवानां दुःखसंकटात् । तस्मात्कुरुत भो यत्नं तत्रानन्तसुखप्रदे ॥७२॥ अन्वयार्थ-(जीवानां) जीवोंको (दुःखसंकटात्) दुःख संकटोंसे (सदा त्राता) सदा रक्षा करने वाला (धर्मः एव) धर्म ही है (तस्मात्) इसलिए (अनन्तसुखप्रदे तत्र) अनन्त सुखके देने वाले उस धर्ममें (भो) हे भाई ! (यत्नं कुरु) तू पुरुषार्थ कर। ___ भावार्थ-जो धर्मात्मा होते हैं उनके परिणामोंमें सदा संतोष रहता है। इसलिए दुःखोंके पड़ने पर वे आकुलित नहीं होते । उनको असाताके कारण मिलनेपर ज्ञानके बलसे धैर्य रहता है । इसके सिवाय धर्मके प्रतापसे पिछले बाँधे हुए पाप कर्मोंको पुण्यमें पलटा जा सकता है । पापका बल घटाया जा सकता है। नवीन पुण्यका बंध होता है जो इस जन्ममें भी उदय देना प्रारम्भ कर सकता है। इसलिए धर्मात्माके ऊपर आनेवाले संकट टल जाते हैं या कम हो जाते हैं। भवभवके दुःखोंसे बचानेवाले व अनन्त सुखके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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