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________________ ३९ धर्म सुखकारी व तारक है देनेवाले इस आत्माके स्वाभाविक धर्मपर दृढ श्रद्धा लाकर उस धर्मका साधन प्रमाद त्यागकर बड़े परिश्रमसे करना चाहिए । यत्त्वया न कृतो धर्मः सदा मोक्षसुखावहः । प्रसन्नमनसा येन तेन दुःखी भवानिह ॥७३॥ अन्वयार्थ-(यत् येन) जिस कारणसे (त्वया) तूने (मोक्षसुखावहः) मोक्षसुखके देनेवाले (धर्मः) धर्मको (प्रसन्न मनसा) प्रसन्न मनके साथ (सदा न कृतः) सदा नहीं पाला है (तेन) इसी कारणसे (इह) इस लोकमें (भवान्) तू (दुःखी) दुःखोंका पात्र बन रहा है। भावार्थ-दु:खोंका कारण पापोंका उदय है । पापोंका बन्ध आर्तध्यान व रौद्रध्यानसे या अशुभयोगसे होता है। जो धर्मकी क्रियाको भी दुःख भावसे करता है उसको परिणामके अनुकूल पापका ही बन्ध होता है । इसलिए धार्मिक क्रियाको बड़े आनन्द भावसे श्रद्धापूर्वक करना योग्य है, जिससे अतिशयकारी पुण्यका बन्ध हो । धर्मका साधन किसी इच्छासे न करके केवल कर्मबन्धसे छूटनेके हेतु ही करना चाहिए। अतीन्द्रिय आनन्दके लिए ही करना चाहिए । तथा धर्म भी वही सत्य है जो अतीन्द्रिय आनंदका स्वाद प्रदान करे। वह धर्म स्वात्मानुभवरूप है, जहाँ निश्चय सम्यक्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक् चारित्रकी एकता है अथवा शुद्ध भावकी ओर प्रेम बढ़ानेवाला शुभोपयोग भी धर्म है । जो सदा जिनधर्मको पालेगा वह कभी दुखोंके सागरमें नहीं पड़ेगा। यत्त्वया क्रियते कर्मविषयान्धेन दारुणम् । उदये तस्य सम्प्राप्ते कस्ते त्राता भविष्यति ॥७४॥ अन्वयार्थ-(विषयान्धेन) विषयमें अन्ध होकर (त्वया) तेरे द्वारा (यत् दारुणं कर्म) जो भयानक तीव्र कर्म (क्रियते) बाँधे जाते हैं (तस्य उदये सम्प्राप्ते) उन कर्मों के उदय आनेपर (फल मिलनेपर) (कः) कौन (ते) तेरा (त्राता) रक्षक (भविष्यति) होगा? भावार्थ-इस जीवको अपने बाँधे हुए तीव्रकर्मोंका फल स्वयं आप ही भोगना पड़ता है। कर्मोंके उदयसे शारीरिक व मानसिक अवस्था बिगड़ती है उसको कोई बटा नहीं सकता व उस समय जो वेदना होती है उसको भी स्वयं आप अकेलेको ही भोगनी पड़ती है। तीव्र कर्मोंका बन्ध अन्याय, अभक्ष्य, मिथ्यात्वके कारण हो जाता है। विषयोंमें अन्धा प्राणी धर्म और न्यायका तिरस्कार करके जो तीव्र रागद्वेषमोह करता है वही तीव्र पापबंध करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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