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________________ ३७ धर्म सुखकारी व तारक है सर्व प्रकारसे सुखका भण्डार है । उस धर्मके पालनेसे कभी कष्ट नहीं होता है। वर्तमानमें भी सुख होता है, आत्मिक सुखका स्वाद आता है तथा भविष्यमें भी पुण्यके फलसे साताकारी संयोगोंको देनेका कारण है और वह परम्परा मोक्षका हेतु है। ऐसे वीतराग विज्ञानमय धर्मको जो नहीं समझते हैं, नहीं पालते हैं उनका मनुष्यजन्म निरर्थक बीत जाता है। इस नरजन्मकी शोभा सत्य आत्मानन्द प्रदायक व परम अहिंसामय धर्मके आराधनसे ही होती है। जो जिनकथित संयमको पालकर अपने आत्माको शुद्ध करते हैं उन्हींका जन्म सफल है । जो धर्मसे प्रेम न करते हुए रातदिन कुटुंबके मोहमें अंध हो वर्तते हैं वे इस नरजन्मरूपी रत्नको कौड़ियोंके बदलेमें खोते हैं । हितं कर्म परित्यज्य पापकर्मसु रज्यते । तेन वै दह्यते चेतः शोचनीयो भविष्यति ॥६९॥ अन्वयार्थ-(हितं कर्म) आत्माकी हितकारी क्रियाको (परित्यज्य) छोड़कर (पापकर्मसु) पापकर्मोंम (रज्यते) जो रंजायमान हो जाता है (तेन) उसने (वै) यथार्थमें (चेतः) अपने आपको (दह्यते) दग्ध कर दिया । (शोचनीयः) शोककारक यह बात (भविष्यति) भविष्यमें होगी। भावार्थ-आत्माका हित आत्मज्ञान सहित धर्मके आचरणसे है। जो मूर्ख इस धर्मकी कुछ भी परवाह न करके, रातदिन विषय व कषायोंके आधीन होकर उनकी सिद्धि होनेके लिए हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील आदि पापोंमें आसक्त होकर बिना ग्लानिके करता रहता है उसने अपने आत्माको मानो जला ही डाला, उसका घोर बिगाड़ किया, क्योंकि पाप कर्मोंसे तीव्र कर्मोंका बन्ध हो जायेगा । जब उन पापोंका उदय आयेगा और दुःख सहना पडेगा तब इस प्राणीको बहुत पछताना पड़ेगा और शोकित होना पडेगा । अतएव पापोंसे मन, वचन, कायाको हटाकर धर्ममें प्रवृत्ति करनी योग्य है। यदि नामाप्रियं दुःखं सुखं वा यदि वा प्रियम् । ततः कुरुत सद्धर्मं जिनानां जितजन्मनाम् ॥७०॥ अन्वयार्थ-(यदि) यदि (नाम) वास्तवमें (दुःखं) दुःख (अप्रियं) अच्छा नहीं लगता है (वा यदि सुखं वा प्रियम्) तथा यदि सुख प्यारा लगता है (ततः) तो (जितजन्मनाम्) संसारको जीतने वाले (जिनानां) जिनेन्द्रोंके (सद्धर्म) सच्चे धर्मको (कुरुत) पालो। भावार्थ-दुःखोंका मूल निमित्त कारण पापकर्मोंका उदय है। तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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