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________________ ३६ संशय नहीं करना चाहिए । भावार्थ- कर्मभूमिके मानवोंको अकाल मरण भी करना पड़ता है इससे मरणके समयका निश्चय करना दुर्लभ है । इसलिए ज्ञानीको यही समझना चाहिए कि मरण सदा ही खड़ा रहता है। मालूम नहीं कब गला दबा देवे | इसलिए धर्मसेवन फिर कर लेंगे इस भावको मनसे दूर करके धर्मका सेवन हर समय करते रहना चाहिए। ध्यान, स्वाध्याय, संयम, दान, तप, भक्ति, सेवा परोपकारादिमें सदा वर्तना चाहिए, जिससे मरण जब चाहे होवे तो भी प्राणीको कष्ट न हो, मर करके सुगतिको प्राप्त हो । सारसमुच्चय आयुर्यस्यापि दैवज्ञैः परिज्ञाते 'हितान्तके । तस्यापि क्षीयते सद्यो निमित्तान्तरयोगतः || ६७ || अन्वयार्थ -(यस्य अपि आयुः) जिस किसीकी भी आयु (दैवज्ञैः ) भाग्यके ज्ञाता निमित्त ज्ञानियोंके द्वारा (हितान्तके) हितसे अन्त होगी व अमुक समय पर छूटेगी (परिज्ञाते) ऐसा जान लिया जावे ( तस्य अपि ) उसकी भी आयु ( निमित्तान्तरयोगतः ) किसी विपरीत निमित्तके संयोग होनेपर (सद्यः) शीघ्र ( क्षीयते) क्षय हो जाती है । भावार्थ - निमित्तज्ञानी बता भी देवें कि अमुक समय तुम्हारा मरण होगा, तो भी उनका वचन बहुत करके ठीक नहीं पड़ सकता है, क्योंकि जगतमें असाध्य रोग, अग्नि-प्रकोप, भूकम्प, जलप्रवाह आदि अनेक अकस्मात् एकाएक आ जाते हैं जिससे आयुकर्मके पुद्गल उदीरणारूप होकर शीघ्र ही गिर पडते हैं । जैसे दीपकमें तेल इतना हो कि रात्रिभर जलेगा, परन्तु किसी कारणसे दीपकका तेल गिर जावे तो वह दीपक तुर्त बुझ जाता है, वैसे ही आयुकी स्थिति निमित्तज्ञानी द्वारा जान भी ली जावे तो भी वह स्थिति एकदम खिर जाती है । जीवनकी ऐसी क्षणभंगुरता समझकर बुद्धिमानको सदा ही धर्ममें तत्पर रहना उचित है । जिनैर्निगदितं धर्मं सर्वसौख्यमहानिधिम् । ये न तं प्रतिपद्यन्ते तेषां जन्म निरर्थकम् ॥ ६८ ॥ अन्वयार्थ - (जिनैः) श्री जिनेन्द्रोंने (सर्वसौख्यमहानिधिम् ) सर्व सुखका भण्डार स्वरूप (धर्मं धर्मको (निगदितं ) कहा है। (ये) जो (तं) उसे ( न प्रतिपद्यन्ते) नहीं धारण करते हैं (तेषां ) उनका (जन्म निरर्थकं ) जन्म वृथा है । भावार्थ - श्री वीतराग सर्वज्ञ देवने जिस धर्मका उपदेश किया है वह पाठान्तर - १. हि जातके । २. निमित्तोत्तरयोगतः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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