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________________ २२ सारसमुच्चय अन्वयार्थ-(शंकादिमलवर्जितम्) शंका कांक्षा आदि आठ मुख्य दोषोंसे रहित (सम्यक्त्वं) यह सम्यग्दर्शन (परमं रत्न) परम रत्न है, (संसारदुःखदारिद्र्यं) संसारके दुःखरूपी दारिद्र्यको यह (सुविनिश्चितम्) निश्चयसे (नाशयेत्) नाश कर देता है। भावार्थ-जैसे किसी दरिद्री मानवको निर्दोष रत्न मिल जावे तो वह उसे बेचकर लक्षपति करोडपति हो जाता है वैसे जिस किसीको सम्यग्दर्शनरूपी रत्न मिल जाता है वह सर्व सांसारिक कष्टोंको मेटकर परमसुखी हो जाता है। उसकी अनादिकालसे चली आयी तृष्णाकी प्यास मिट जाती है। जैसे जंगलमें मृगको पानी न मिलनेसे भ्रमसे पानीको झलकानेवाली घास मृगकी तृषाको शमन नहीं करती है वैसे भ्रमसे माना हुआ विषयसुख मिथ्यात्वीकी तृष्णाको शमन नहीं कर सकता है। सच्चा पानी मिलनेसे जैसे हिरन तृप्त हो जाता है वैसे आत्मसुख मिलनेसे सम्यग्दृष्टि परमसंतोषी रहता है। जगतमें सम्यग्दर्शनके समान कोई अमूल्य रत्न नहीं है। इस सम्यग्दर्शनको व्यवहारमें आठ अंग सहित पालना चाहिए तब उसके विरोधी आठ मल नहीं रहेंगे। १. निशंकित-सात तत्त्वोंमें देव, शास्त्र और गुरुमें दृढ श्रद्धा रखना और निर्भय हो सत्य मोक्षमार्ग पर चलना । २. निःकांक्षित-विषय सुखको पराधीन, दुःखका बीज व संसारका भ्रमानेवाला समझना । । ३. निर्विचिकित्सा-दुःखी अनाथ रोगी दरिद्री नीचको देखकर घृणा न करना, दयाभाव रखना। . ४. अमूढदृष्टि-मूर्खतासे देखादेखी किसी देव शास्त्र गुरु व धर्मकी सेवा न करना। ५. उपगृहन-परनिन्दाको परदोषग्रहण स्वभाव न रखकर परको सुधारनेका भाव रखना व अपने अवगुण टाल कर गुणोंको बढाना । ६. स्थितिकरण-अपना मन धर्मसेवनसे शिथिल होता हो तो दृढ करना व दूसरोंको उपदेश देकर सहायता करके धर्ममें दृढ करना । ७. वात्सल्य-धर्मात्माओंके साथ गोवच्छके समान प्रेम रखना। ८. प्रभावना-जैनधर्मका प्रकाश करके अज्ञान व मिथ्यात्व मेटना । इस आठ अंगोंको जो व्यवहारमें पालता है, उसके मनमें सच्ची आत्मप्रतीति होती है, उसका सम्यक्त्व निर्मल है ऐसा प्रकट होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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