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________________ सम्यग्दर्शनका महत्त्व सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य ध्रुवं निर्वाणसङ्गमः । मिथ्यादृशोऽस्य जीवस्य संसारे भ्रमणं सदा ॥४१॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य) जो भव्य जीव सम्यक्दृष्टि है उसको (ध्रवं) निश्चयसे (निर्वाणसङ्गमः) निर्वाणका लाभ होगा और (अस्य) इस (मिथ्यादृशः जीवस्य) मिथ्यादृष्टि जीवका (सदा) हमेशा (संसारे) इस संसार में (भ्रमणं) भ्रमण रहेगा। भावार्थ-सम्यक्दृष्टि जीव उसे ही कहते हैं जिसने यह दृढ निश्चय कर लिया है कि मैं स्वयं निश्चयसे मोक्षस्वरूप हूँ, मैं स्वयं सिद्धसम शुद्ध हूँ तथा यह कर्मयोग मेरे स्वभावका घातक है, इसे अवश्य दूर कर ही देना चाहिए । बस इस आत्मानुभवरूपी मसालेको रगड़कर अपने आत्मारूपी वस्त्रको अवश्य शुद्ध करके कभी न कभी बहुत शीघ्र मुक्त हो जायेगा । विवेकी जीव मलिन वस्त्रको देखकर तुर्त उसको शुद्ध कर डालते हैं। मिथ्यादृष्टिको न मोक्षकी और न ही मोक्षमार्गकी श्रद्धा होती है। वह संसारके क्षणिक सुखको ही सुख मानता है। इसलिए धनधान्यादि परपदार्थोंके संग्रहमें आसक्त रहता है । वह कभी संसारसे पार नहीं हो सकता। वह तो पाप-पुण्यके अनुसार इस भयानक संसार-वनमें भटकता ही रहेगा। पण्डितोऽसौ विनीतोऽसौ धर्मज्ञः प्रियदर्शनः । यः सदाचारसम्पन्नः सम्यक्त्वदृढमानसः॥४२॥ अन्वयार्थ-(यः) जो कोई (सम्यक्त्वदृढमानसः) सम्यग्दर्शनको दृढतासे रखनेवाला है (सदाचारसम्पन्नः) और सदाचारमें चलनेवाला है (असौ) वही (पण्डितः) पण्डित है (असौ) वही (विनीतो) विनयवान है, (प्रियदर्शनः) वही प्रेमसे दर्शनयोग्य है, (धर्मज्ञः) वही धर्मका माननेवाला है। भावार्थ-पण्डित वही है जिसके पण्डा अर्थात् भेदविज्ञान है। जो आत्मतत्त्वको परसे भिन्न समझकर उसका परम प्रेमी है अर्थात् सम्यग्दृष्टि है और फिर श्रद्धानुकूल मोक्षमार्गमें चलनेवाला है। केवल शास्त्रोंका ज्ञाता पण्डित नहीं है। विनयवान शिष्य भी वही है जो सम्यग्दर्शन और चारित्रकी बड़ी भक्ति करता है । वही सत्पुरुष दर्शनयोग्य है जिसके भावोंमें सम्यग्दर्शन और चारित्र प्रकाशमान है । धर्मका ज्ञाता भी वही है जो भले प्रकार आत्मतत्त्वको जानकर उसका स्वाद लेता है । सम्यग्दर्शनके बिना न कोई पण्डित हो सकता है, न भक्त, न दर्शनीय और न धर्मज्ञाता ही हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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