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________________ सम्यग्दर्शनका महत्त्व २१ ( संयोगायोगखिन्नानां) जो अनिष्टसंयोग व इष्टवियोगसे दुःखित है उनके लिए (सम्यक्त्वं) यह सम्यग्दर्शन (परमं हितम् ) परम हितकारी है । भावार्थ - तीव्र गर्मीके आतापसे पीडितको शीतल जलका सरोवर मिलना व उसमें स्नान करना जैसे हितकारी है वैसे क्रोधादि कषायोंका आताप अपने आत्माके शुद्ध शान्त आनंदमय सरोवरमें स्नान करनेसे शमन हो जाता है । जैसे विषको दूर करनेके लिए अमृत जड़ीका सेवन हितकारी है वैसे विषयोंकी चाह अतीन्द्रिय आत्मानंदरूपी अमृतके पानसे बुझ जाती है । कर्मोंके उदयसे अनिष्टका संयोग और इष्ट स्त्री-पुत्र मित्रादिका वियोग होता है उसकी चिन्ता शुद्धात्माके मननकी शांत हवा लगनेसे मिट जाती है । अतएव आत्मप्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन विषय- कषायोंके दूर करनेका सबसे बड़ा उपाय है । वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन समायुतः । न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ॥३९॥ अन्वयार्थ - (सम्यक्त्वेन) सम्यग्दर्शनसे (समायुतः) विभूषित जीवको (नरक वासः) नरकका वास (अपि) भी ( वरं) अच्छा है । (तु) परन्तु (सम्यक्त्वहीनस्य ) सम्यग्दर्शन रहितका (दिवि) स्वर्गमें (निवासो) रहना (न राजते) नहीं शोभता है । भावार्थ-क्योंकि विषयभोगोंसे तृप्ति नहीं आती, आकुलता नहीं मिटती, इसलिए स्वर्गोंके देवोपुनीत भोग सुखकी तृष्णाकी दाह नहीं दूर कर सकते, वहाँ बाहरी सुखसामग्री रहते हुए भी अन्तरङ्गमें क्लेशभाव है, आर्त्तध्यान है, जबकि नरकमें यद्यपि बाहरी बहुत कष्ट है तथापि अन्तरङ्गमें सम्यग्दर्शन होनेसे उस नारकीको निज आत्माके आनन्दका स्वाद आता है । इससे वह परम संतोषी व सुखी है । नरकमें अशुभके उदयको वह स्वकृत कर्मकी निर्जरा समझके संतोषसे भोग लेता है । नरकमें रहते हुए भी सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है जबकि स्वर्गवासी देव मिथ्यादृष्टि संसारमार्गी है । स्वर्गसे आकर एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय व तिर्यंचके तुच्छ प्राणीके रूपमें जन्मता है जबकि नरकसे निकल कर सम्यग्दृष्टि तीर्थंकर तक हो जाता है । सम्यग्दर्शन एक अपूर्व रत्न है । जिसके हाथ लग गया, वह मानो परमात्मा ही हो गया । सम्यक्त्वं परमं रत्नं शङ्कादिमलवर्जितम् । संसारदुःखदारिद्र्यं नाशयेत्सुविनिश्चितम् ॥४०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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