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________________ आत्माके वैरी विषय-कषाय उत्पन्न हो जाता है (यत्) जो (भवभेदि) संसारका छेदक है-विनाशक है। भावार्थ-ज्ञानोपयोग पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें लुभाकर अपने आत्माकी ओर नहीं आता है, इसलिए आत्माके स्वाभाविक परम निराकुल वीतराग व श्रेष्ठ आनन्दका लाभ नहीं करता है । यदि यह सर्व इन्द्रियोंके विषयोंसे उपयोग हटा ले और उसे अपने आत्माकी ओर झुका ले तो उसी समय अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद आ जावे । जैसे मिश्रीके स्वादमें रसना द्वारा उपयोगके लगते ही तुरंत मिष्टताका स्वाद आता है, वैसे ही जब आत्मा आत्मस्थ होता है तब ही वीतराग ध्यान उत्पन्न होता है। इस ध्यानसे संसारके कारणभूत कर्मोंका क्षय भी होता है, तथा शुद्धात्मानुभवसे वर्तमानमें स्वात्मानन्द भी मिलता है। कषायान् शत्रुवत् पश्येद्विषयान् विषवत्तथा । मोहं च परमं व्याधिमेवमूचुर्विचक्षणाः ॥३५॥ अन्वयार्थ-(कषायान्) चारों कषायोंको (शत्रुवत्) रिपुके समान, (विषयान्) इन्द्रियोंके विषयोंको (विषवत) विषके बराबर (तथा) और (मोहं च परमं व्याधि) मोहको बड़ा भारी रोग (पश्येत्) देखना चाहिए (एवं) इस तरह (विचक्षणाः) प्रवीण ज्ञानीपुरुषोंने (ऊचुः) उपदेश दिया है । ____भावार्थ-अनुभवशील महात्मा ज्ञानियोंकी यह शिक्षा है कि जो कोई अपना भला चाहता है उसको उचित है कि मिथ्यात्व-भावको भयंकर रोगके समान जानकर उसका शीघ्रसे शीघ्र इलाज करे। क्रोधादि कषायोंको कर्मबंधके कारक जानकर अपना शत्रु समझे, क्योंकि इन्हींके कारण इस प्राणीको संसारमें जन्म मरण करना पडता है तथा इन्द्रियोंके विषयोंको विषके समान देखकर उनका स्पर्श भी न करे । क्योंकि ये विषय सेवनेपर तृष्णाका ऐसा विष फैला देते हैं जो भव-भवमें कष्ट देता है, और यह बिचारा भोला प्राणी संसारके जालमें उलझता ही चला जाता है। फिर अनन्तकालमें भी निकलना दुर्लभ होता जाता है। , कषायविषयैश्चौरै-धर्मरत्नं विलुप्यते । वैराग्यखगधाराभिः शूराः कुर्वन्ति रक्षणम् ॥३६॥ अन्वयार्थ-(धर्मरत्नं) यह रत्नत्रयधर्म (कषायविषयैः) कषाय तथा विषयरूपी (चौरैः) चोरोंसे (विलुप्यते) चुराया जाता है किन्तु (शूराः) वीर पुरुष (वैराग्यखड्गधाराभिः) वैराग्यरूपी तलवारकी धारसे उनको रोककर व निग्रहकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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